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८६ : जैन भाषादर्शन
मेरी दृष्टि में अवक्तव्यता या अवाच्यता के अनेक रूप जैन परम्परा में मान्य रहे हैं । प्रथम तो 'है और नहीं है' - ऐसे विधि प्रतिषेध का युगपत् ( एक ही साथ) प्रतिपादन सम्भव नहीं है अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है । दूसरे अपेक्षाएँ अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन सम्भव नहीं है, इसलिए भी उसे अवक्तव्य या अवाच्य कहा गया । तीसर प्रत्येक वस्तु में अनन्त विशिष्ट गुण धर्म है, किन्तु भाषा में प्रत्येक विशिष्ट गुण-धर्म का वाचक शब्द नहीं है, इसलिए वस्तुतत्त्व को अवाच्य कहा गया । चौथे सामान्य शब्द प्रत्येक वस्तु गुणधर्म - विशेष की विशिष्टता का समग्रतः वाचक नहीं हो सकता। इस प्रकार जैन दर्शन में सत्ता निरपेक्षतः एवं समग्रतः रूप से अवाच्य होते हुए भी सापेक्षतः एवं अंशतः रूप से वाच्य भी हैं ।
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