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________________ ८४ : जेन भाषादर्शनं भाव या विचार को सार्थक रूप से प्रकट कर देती है और जिसके द्वारा दूसरा व्यक्ति उनके लक्षित अर्थ को ग्रहण कर लेता है-श्रुतज्ञान है। चूंकि श्रुतज्ञान प्रमाण है, अतः मानना होगा कि शब्द संकेत या भाषा अपने विषय या अर्थ का प्रामाणिक ज्ञान देने में समर्थ है। दूसरे शब्दों में सत् या वस्तु वाच्य भी है। इस प्रकार जैन दर्शन में सत्ता या वस्तु-तत्त्व को अंशतः वाच्य या वक्तव्य और समग्रतः अवाच्य या अवक्तव्य कहा गया है। यहाँ यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि इस अवक्तव्यता का क्या अर्थ है। ___ डा० पद्मराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास को दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है (१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण-जिसमें विश्वकारण की खोज करते हुए ऋषि इस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता है. यहाँ दोनों पक्षों का निषेध है। यहाँ सत्ता की अस्ति (सत्) और नास्ति (असत्) रूप से वाच्यता का निषेध किया गया है। (२) दूसरा औपनिषदिक दृष्टिकोण-जिसमें सत्-असत आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है । जैसे-'तदेजति तन्नेजति', 'अणोरणीयान् महतो महीयान्', 'सदसद्वरेण्यम्' आदि । यहाँ दोनों पक्षों को स्वीकृति है । यहाँ उसे दो विरुद्ध धर्मों से युक्त मानकर उसको भाषा के द्वारा अवाच्य कहा गया है। (३) तीसरा दृष्टिकोण-जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य या अनिर्वचनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है । जैसे—'यतो वाचो निवर्तन्ते' (तैत्तिरीय २।४), नैव वाचा न मनस प्राप्तुं शक्यः (कठ० २।६।१२) ? आदि । बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद के चतुष्कोटि विनिमुक्त तत्व की अवधारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (४) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है । जिसमें सत्ता को अंशतः वाच्य और समग्रतः अवाच्य कहा गया है । इस प्रकार सामान्यतया सत्ता की अवक्तव्यता के निम्न अर्थ हो सकते हैं(१) सत् व असत् दोनों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। (२) सत्, असत् और सदसत् तीनों रूपों से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। (३) सत्, असत् सत्-असत्, (उभय) और न सत् न असत् (अनुभय) चारों रूपों से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। (४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से हो अवक्तव्य मानना अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभवगम्य है, शब्दगम्य नहीं । वह अनुभव में तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता। (५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके कथन के लिये कोई शब्द न होने के कारण सत्ता को अवक्तव्य कहना। (६) वस्तुत्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं उतने वाचक शब्द नहीं हैं । अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशतः अवाच्य मानना । Jaina Theories of Reality and Knowledge. p. 347-351. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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