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________________ ७० : जैन भाषादर्शन पद परस्पर अन्वित ही प्रतीत होते हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती पद अपने परवर्ती पद से अन्वित होकर ही वाक्यार्थ का बोध कराता है अतः वाक्य को सुनकर अन्वितों का ही अभिधान (ज्ञान) होता है । यद्यपि यह सिद्धान्त यह मानता है कि पद अपने अर्थ का स्मारक ( स्मरण करानेवाला) अवश्य होता है किन्तु वाक्यार्थ के बोध में वह अन्य पदों से अन्वित ( सम्बद्ध) होकर ही अर्थबोध देता है, अपना स्वतन्त्र अर्थबोध नहीं देता है । अन्विताभिधानवाद की समीक्षा ' प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में अन्विताभिधानवाद के विरुद्ध निम्न आक्षेप प्रस्तुत करते हैं— प्रथमतः यदि यह माना जाता है कि वाक्य के पद परस्पर अन्वित या एक दूसरे से सम्बन्धित होकर ही अनुभूत होते हैं अर्थात् अन्वित रूप में ही उनका अभिधान होता है तो फिर प्रथम पद के श्रवण से वाक्यार्थं का बोध हो जाना चाहिए। किन्तु ऐसी स्थिति में अन्य पदों का उच्चारण ही व्यर्थ हो जायेगा । साथ ही प्रथम पद को वाक्यत्व प्राप्त हो जायेगा अथवा वाक्य का प्रत्येक पद स्वतन्त्र रूप से वाक्यत्व को प्राप्त कर लेगा । पूर्वोत्तर पदों के परस्पर अन्वित होने के कारण एक पद के श्रवण से ही सम्पूर्ण वाक्यार्थ का बोध हो जायेगा । प्रभाचन्द्र के इस तर्क के विरोध में यदि अन्विताभिधानवाद की ओर से यह कहा जाये कि अविवक्षित (अवांछित ) पदों के व्यवच्छेद (निषेध) के लिए अन्य पदों का उच्चारण व्यर्थ नहीं माना जा सकता है तो जैनदर्शन का प्रत्युत्तर यह होगा कि ऐसी स्थिति में अन्वित प्रथम पद के द्वारा जो प्रतिपत्ति (अर्थबोध ) हो चुकी है, वाक्य के अन्य पदों के द्वारा मात्र उसकी पुनरुक्ति होगी, अतः पुनरोक्ति का दोष तो होगा ही । यद्यपि यहाँ अपने बचाव के लिए अन्विताभिधानवादी यह कह सकते हैं कि प्रथम पद के द्वारा जिस वाक्यार्थं का प्रधानरूप से प्रतिपादन हुआ है अन्य पद उसके सहायक के रूप में उसी अर्थ का प्रतिपादन करते हैं, अतः यहाँ पुनरोक्ति का दोष नहीं किन्तु जैनों को उनकी यह दलील मान्य नहीं है । गौण रूप से होता है । अन्विताभिधानवादी प्रभाकर की यह मान्यता भी समुचित नहीं है कि पूर्वपदों के अभिधेय अर्थों से अन्वित अन्तिमपद के उच्चारण से हो वाक्यार्थ का बोध होता है । इस सम्बन्ध में जैनतार्किक प्रभाचन्द्र का कहना है कि जब सभी पद परस्पर अन्वित है तो फिर यह मानने का क्या आधार है कि केवल अन्तिम पद के अन्वित अर्थ की प्रतिपत्ति से हो वाक्यार्थं का बोध होता है और अन्य पदों के अर्थ की प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है प्रभाकर अपने अन्विताभिधानवाद के पक्ष में यह तर्क भी दे सकते हैं कि उच्चार्यमान पद का अर्थं अभिधीयमान पद (जाने गये पूर्ववर्ती पद) से अन्वित न होकर गम्यमान अर्थात् पदान्तरों से गोचरीकृत पद (ज्ञात होनेवाले उत्तर वर्ती पद) से अन्वित होता है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक पूर्व-पद अपने उत्तरपद से अन्वित होता है। अतः किसी एक पद से ही वाक्यार्थं का बोध होना सम्भव नहीं होगा । उनकी इस अवधारणा की समालोचना में जैनों का कहना है कि प्रत्येक पूर्वपद का अर्थ केवल अपने उत्तरपद से ही अन्वित होता है, ऐसा मानना उचित नहीं है; क्योंकि अन्वय / सम्बद्धता १. प्रमेयकमलमार्तण्ड ३।१०१ पृ० ४५९-४६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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