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जैन वाक्यदर्शन : ७१ सापेक्ष होती है अतः उत्तरपद भी पूर्वपद से अन्वित होगा। इसलिए केवल अन्तिम पद से ही वाक्यार्थ का बोध मानना स्वयं अन्विताभिधानवाद को दृष्टि से भो तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है।
इस सम्बन्ध में मीमांसक प्रभाकर कह सकते है कि पदों के दो कार्य होते हैं प्रथम-अपने अर्थ का कथन करना और दूसरा-पदान्तर के अर्थ में गमक व्यापार अर्थात् उनका स्मरण कराना । अतः अन्विताभिधानवाद मानने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। किन्तु जैनों की दृष्टि में उनका यह मानना भी तर्क संगत नहीं है, क्योंकि पद-व्यापार से समान अर्थ-बोध होने पर भी किसी को अभिधीयमान और किसी को गम्यमान मानना उचित नहीं है।
पुनः प्रभाकर की ओर से यह प्रश्न उठाया का सकता है कि बुद्धिमान व्यक्ति पद का प्रयोग पद के अर्थ-बोध के लिए करते हैं या वाक्यार्थ बोध के लिए ? पद के अर्थ-बोध के लिए तो कर नहीं सकते क्योंकि पद प्रवृत्ति का हेतु नहीं है। यदि दूसरा विकल्प माना जाये कि 'पद का प्रयोग वाक्य के अर्थबोध के लिये करते हैं तो इससे उनका अन्विताभिधानवाद ही सिद्ध होगा। इसके प्रत्युत्तर में जैनचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि प्रथम तो 'वृक्ष' पद के प्रयोग से शाखा, पल्लव आदि से युक्त अर्थ का बोध होता है उस अर्थ-बोध से 'तिष्ठति' इत्यादि पद स्थान आदि विषय का सामर्थ्य से बोध कराते हैं । स्थान आदि के अर्थ बोध में 'वृक्ष' पद को साक्षात् प्रवृत्ति नहीं होने से उसे उस अर्थ-बोध का कारण नहीं माना जा सकता है। यदि यह माना जाये कि वृक्ष पद 'तिष्ठति' पद के अर्थ-बोध में परम्परा से अर्थात् परोक्षरूप से कारण होता है, तो यह मानना इसलिए समुचित नहीं है कि ऐसा मानने पर तो यह भी मानना होगा कि हेतु-वचन की साध्य की प्रतिपत्ति में प्रवृत्ति होने के कारण अनुमान-ज्ञान शाब्दिक-ज्ञान है, जो कि तर्कसंगत नहीं है।
पुनः मीमांसक प्रभाकर इसके प्रत्युत्तर में यदि यह कहें कि हेतु-वाचक शब्द से होने वाली हेतु की प्रतीति ही शब्द-ज्ञान है, शब्द से ज्ञात हेतु के द्वारा साध्य का जो ज्ञान होता है उसे शाब्दिक ज्ञान न मानकर अनुमान ही मानना होगा अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा, तो फिर जैन दार्शनिक कहेंगे कि वृक्ष शब्द से स्थानादि की प्रतीति में भी अतिप्रसंग दोष तो मानना होगा । क्योंकि जिस प्रकार हेतु शब्द का व्यापार अपने अर्थ (विषय) की प्रतीति कराने तक ही सीमित है, उसी प्रकार वृक्ष शब्द का व्यापार भी अपने अर्थ की तीति कराने तक ही सीमित होगा।
जैनदार्शनिकों की अन्विताभिधानवाद के विरुद्ध दूसरी आपत्ति यह है कि विशेष्यपद विशेष्य को विशेषण-सामान्य से या विशेषण-विशिष्ट से या विशेषण-उभय अर्थात् सामान्य विशेष दोनों से अन्वित करके कहेगा? प्रथम विकल्प अर्थात् विशेष्य विशेषण-सामान्य से अन्वित होता है यह मानने पर विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति सम्भव नहीं होगी, क्योंकि विशेष्य पद सामान्य-विशेषण से अन्वित होने पर विशेष वाक्यार्थ का बोध नहीं करा पावेगा। दूसरा विकल्प मानने पर निश्चयास्मकज्ञान सम्भव नहीं होगा; क्योंकि (मीमांसकों के अनुसार) शब्द से जिसका निर्देश किया गया है, ऐसे प्रतिनियत विशेषण से अपने उक्त विशेष्य का अन्वय करने में संशय उत्पन्न होगा । क्योंकि विशेष्य में दूसरे अनेक विशेषण भो सम्भव है, अतः यह विशेष्य अमुक विशेषण से ही अन्वित है, ऐसा निश्चय नहीं हो सकेगा । यदि पूर्वपक्ष अर्थात् मीमांसक प्रभाकर की ओर से यह कहा जाये कि वक्ता के अभिप्राय से प्रतिनियत विशेषण का उस विशेष्य में अन्वय हो जाता है तो यह कथन भी समोचोन नहीं है, क्योंकि जिस पुरुष के प्रति शब्द का उच्चारण किया गया है उसे तो वक्ता का
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