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________________ जैन वाक्यदर्शन : ६९ प्रत्यय आदि आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होते हैं, उसी प्रकार वाक्य से पद भी आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होता है । प्रथम तो पद अपने वाक्य के घटक पदों से अन्वित या सम्बद्ध होता है और अन्य वाक्य के घटक पदों से अनन्वित या असम्बद्ध होता है । साथ ही वह अन्वित होकर भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है दूसरे द्रव्य - वाक्य में शब्द अलग-अलग होते हैं किन्तु भाव- वाक्य (बुद्धि) में वे परस्पर सम्बन्धित या अन्वित होते हैं । मेरी दृष्टि में यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि चाहे वाक्यों से पृथक् शब्दों का अपना अर्थ होता हो, किन्तु जब वे वाक्य में प्रयुक्त किये गये हों, तब उनका वाक्य से स्वतन्त्र कोई नहीं रह जाता है । उदाहरण के रूप में शतरंज खेलते समय उच्चरित वाक्य यथा - 'राजा मर गया' या 'मैं तुम्हारे राजा को मार दूंगा' - में पदों के वाक्य से स्वतन्त्र अपने निजी अर्थों से वाक्यार्थ बोध में कोई सहायता नहीं मिलती है । यहाँ सम्पूर्ण वाक्य का एक विशिष्ट अर्थ होता है जो प्रयुक्त शब्दों/पदों के पृथक्-पृथक् अर्थों पर बिलकुल ही निर्भर नहीं करता है । अतः यह मानना कि वाक्यार्थ प्रति अनन्वित पदों के अर्थ ही कारणभूत हैं, न्यायसंगत नहीं है । अनेक बार वाक्य रूपी इकाई ही पद रूपी अपने घटकों का अर्थ निर्धारित करती है । अन्विताभिधानवाद पूर्वपक्ष मीमांसा दर्शन के दूसरे प्रमुख आचार्य प्रभाकर के मत को अन्विताभिधानवाद कहा गया है । जहाँ कुमारिल भट्ट अपने अभिहितान्वयवाद में यह मानते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पहले पदार्थ अभिहित होता हो और उसके बाद उन पदार्थों के अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है, वहाँ प्रभाकर अपने अन्विताभिधानवाद में यह मानते हैं कि अन्वित पदार्थों का ही अभिधा शक्ति से बोध होता है । वाक्य में पद परस्पर सम्बन्धित होकर ही वाक्यार्थं का बोध कराते हैं। इनके पारस्परिक सम्बन्ध के ज्ञान (अन्वय) से ही वाक्यार्थ का बोध होता है । वाक्य में प्रयुक्त पदों का सामूहिक या समग्र अर्थं होता है और वाक्य से पृथक उनका कोई अर्थ नहीं होता है । अनुसार पदों को सुनकर संकेत ग्रहण केवल इस सिद्धान्त में पद से पदार्थ-बोध के पश्चात् उनके अन्वय को न मानकर वाक्य को सुनकर सोधा अन्वित पदार्थों का ही बोध माना गया है। इसलिए इस सिद्धान्त में तात्पर्य- आख्या-शक्ति की भी आवश्यकता नहीं मानी गई है । इस मत के अनन्वित पदार्थ में नहीं होता है, अपितु किसी के साथ अन्वित या सम्बन्धित पदार्थ में हो होता है । अतएव अभिहित का अन्वय न मानकर अन्वित का अभिधान मानना चाहिए - यही इस मत का सार है । यह मत मानता है कि वाक्यार्थ वाच्य ही होता है, तात्पर्य-शक्ति से बाद को प्रतीत नहीं होता है । उदाहरण के रूप में ताश खेलते समय उच्चरित वाक्य 'इंट चलो' के अर्थबोध में प्रथम पदों के अर्थ का बोध, फिर उनके अन्वय से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है अपितु सीधा ही वाक्यार्थ का बोध होता है। क्योंकि यहाँ ईंट शब्द ईंट नामक वस्तु का वाचक न होकर ईंट की आकृति से युक्त ताश के पत्ते का वाचक है और 'चलना' शब्द गमन क्रिया का वाचक न होकर पत्ता डालने का वाचक है । इसी आधार पर अन्विताभिधान की मान्यता है कि वाक्यार्थ के बोध में १. देखें - काव्यप्रकाश ( आचार्य विश्वेश्वर ) पृ० ३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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