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________________ ४८ : भाषादर्शन विषय की वास्तविक अनुभूति होनी चाहिए। न्यायकुमुदचन्द्र में इस प्रश्न को उठाकर स्पष्ट रूप से बताया गया है कि मोदक शब्द के उच्चारण से मुख में मीठे स्वाद की अनुभूति नहीं होती । अतः मोदक शब्द और उसके वाच्यार्थ मोदक नामक वस्तु में तादात्म्य नहीं है। इसी प्रकार से शब्द और उसके वाच्यार्थ में तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं है। न तो शब्द से अपने वाच्य-विषय की उत्पत्ति होती है और न वाच्य-विषय से शब्द की हो । शब्द और उसके वाच्य-विषय दोनों एक दूसरे से विविक्त अस्तित्व रखते हैं । अतः शब्द और उसके वाच्य-विषय में तदुत्पत्ति सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द और उसके वाच्यार्थ में यद्यपि तद्रूपता और तदुत्पत्ति का सम्बन्ध नहीं है फिर भी उन्होंने दोनों में वाच्यवाचक सम्बन्ध स्वीकार किया है। जबकि बौद्धों के अनुसार शब्द का उसके वाच्य-विषय से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। उनका कहना है कि शब्द अर्थ (वाच्य-विषय) का स्पर्श नहीं करता है। बौद्ध दार्शनिकों की इस मान्यता पर जैनों की आपत्ति यह है कि यदि शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है तो फिर अर्थ (वस्तु) को देखने पर शब्द का स्मरण और शब्द को सुनने पर अर्थ (वस्तु) का स्मरण किस प्रकार हो जाता है । शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध न मानने पर हमें यह भी मानना होगा कि शब्द को सुनकर अर्थ का स्मरण नहीं होगा और अर्थ (वाच्य-वस्तु) को देखकर शब्द का स्मरण नहीं होगा। किन्तु व्यावहारिक अनुभव इससे भिन्न बात ही कहता है, हमें अर्थ (वस्तु) को देखकर उसके वाचक-शब्द का स्मरण हो जाता है और वाचक-शब्द को सुनने पर उससे वस्तु का स्मरण हो जाता है। बौद्धों ने इस आनुभविक कठिनाई को सुलझाने के लिए यह माना कि शब्द का सामान्य के साथ तदुत्पत्ति लक्षण सम्बन्ध है और सामान्य का विशेष के साथ एकत्त्व अध्यवसाय हो जाता है । अतः शब्द का विशेष के साथ साक्षात् सम्बन्ध न होने पर भी शब्द को सुनकर वस्तु विशेष का बोध और वस्तु विशेष को देखकर शब्द का बोध हो जाता है। किन्तु बौद्धों की दार्शनिक मान्यता के अनुसार शब्द का सम्बन्ध न तो प्रत्यक्षीकरण के साथ हो सकता है और न स्वलक्षण (वस्तु) के साथ, क्योंकि उनके अनुसार सामान्य भी मात्र नाम है उसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। पुनः वे प्रत्यक्ष को निर्विकल्प-बोध मानते हैं और निर्विकल्प बोध शब्द-संसर्ग से रहित होता है। अतः उनके दर्शन में शब्द का सामान्य और वस्तु-स्वलक्षण के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बन सकेगा। पुनः यदि हम शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहों स्वीकार करेंगे और बौद्धों के समान यह मानेंगे कि शब्द अपने वाक्यार्थ का स्पर्श ही नहीं करता है तो हमें भाषा की अर्थ-संकेतक शक्ति को भी अस्वीकार करना होगा और इस स्थिति में भाषा निरर्थक हो जायेगी । अतः शब्द और अर्थ के सम्बन्ध के प्रश्न को लेकर हमें इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि शब्द और उसके अर्थ में न तो तादात्म्य सम्बन्ध है और न वे एक दूसरे से पूर्णतया असम्बन्धित हैं, अपितु उनमें वाच्य-वाचक सम्बन्ध है। शब्द वाचक है और वस्तु वाच्य है। शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की अनित्यता मीमांसक न केवल शब्द को नित्य मानते हैं अपितु वे शब्द और उसके वाच्यार्थ के सम्बन्ध को भी नित्य मानते हैं। शब्द और उनके वाच्यार्थ के सम्बन्ध को नित्यता की अवधारणा एक नई समस्या को उत्पन्न करती है। यदि शब्द और उनके वाच्यार्थ के बीच का सम्बन्ध नित्य है तो शब्दों में अर्थ-परिवर्तन नहीं होना चाहिए। लेकिन भाषा-विज्ञान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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