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________________ जैन शब्ददर्शन : ४९ अध्ययन इस बात को सुस्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि शब्दों के वाच्यार्थों में परिवर्तन होता रहता है । प्राकृत साहित्य में 'ईसर' (ईश्वर) शब्द सम्पन्न व्यक्ति का सूचक है । वही ईश्वर शब्द कालान्तर में जगत् के नियन्ता एवं सृष्टा तत्त्व के रूप में प्रयुक्त होने लगा । 'ब्रह्म' शब्द जो मूल में 'यज्ञ' (Sacrifice) या बलिदान का सूचक था, वही कालान्तर में परमतत्त्व का वाचक बन गया। 'बुद्ध' शब्द जो 'प्रज्ञावान्' व्यक्ति का वाचक था वही कालान्तर में 'बुद्ध' होकर गंवार या मूर्ख का वाचक हो गया । नग्न और लुंचित शब्द जो किसी समय जैन मुनियों के लिए आदर के साथ प्रयुक्त होते थे, उनके हो तद्भव रूप 'नंगा' और 'लुच्चा' होकर बदमाशों के पर्यायवाची हो गये। यह तो हमने कुछ ऐसे अर्थ-परिवर्तनों के उदाहरण दिये जिनका अर्थ एकदम ही भिन्न हो गया है। इसके अतिरिक्त भी अर्थ-परिवर्तन होते रहते हैं। अर्थ-परिवर्तन की अनेक दिशाएँ हैं-अर्थ-विस्तार (Extention of meaning) जैसे-स्याही, पहले काले रंग को स्याही ही स्याही थी अब सभी रंगों की । अर्थ-संकोच जैसे-वास, पहले वह सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों का वाचक था, अब केवल दुर्गन्ध का । अर्थ-आदेश (Transfer of meaning) जैसे-असुर, जो प्रारम्भ में देवताओं का वाचक था बाद में राक्षसों का वाचक हो गया। इस प्रकार शब्दों के अर्थापकर्ष और अर्थोत्कर्ष भी होते रहते हैं । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शब्दों के वाच्यार्थ काल को परिवर्तनशील धारा में अपना अर्थ खोते और पाते रहते हैं। एक ही मूल शब्द से निर्मित 'गाड' और 'गुरु' शब्द दो देशों में दो भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होने लगते हैं। दार्शनिक दृष्टि से इस अर्थ-परिवर्तन की प्रक्रिया का निष्कर्ष यही निकलता है कि शब्द और उनके वाच्यार्थों में कोई नियत सम्बन्ध नहीं है। शब्द का वाच्यार्थ केवल मात्र उसके धात्वर्थ से निश्चित नहीं होता है, अपितु प्रयोग के आधार पर उसका वाच्यार्थ बदलता भी रहता है । पाश्चात्य भाषा-दार्शनिक लुडविग विगैन्स्टिन ने शब्द के वाच्यार्थ के निश्चय के सम्बन्ध में प्रयोग सिद्धान्त (Use theory) का प्रतिपादन किया । वह बताता है कि शब्द का वाच्यार्थ उसके प्रयोग से ही निश्चित होता है। कभी-कभी तो एक ही प्रकार की शब्दावली या वाक्य केवल अपने कहने के ढंग के आधार पर बिल्कुल भिन्न अर्थ के वाचक हो जाते हैं । 'आप बहुत ही भले आदमी हैं' इसी वाक्य को यदि वक्ता थोड़ा जोर देकर कह देता है तो उसका अर्थ एकदम भिन्न हो जाता है। जैन दार्शनिकों ने इसीलिए अपने भाषा दर्शन में दो सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। प्रथम तो वे अर्थान्तरण (Transfer of meaning) को स्वीकार करने के लिए इस बात को स्वीकार करते हैं कि शब्द और उसके वाच्यार्थ का सम्बन्ध एकान्तरूप से नित्य नहीं। दूसरे वे इस तथ्य को भी स्वीकार करते हैं कि शब्द के अर्थ का निर्धारण उसके प्रयोग के आधार पर ही होता है । इस आधार से उनके अनुसार शब्द और उसके वाच्यार्थ का सम्बन्ध नित्य या अपरिवर्तनशील न होकर अनित्य या परिवर्तनशोल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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