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जैन शब्ददर्शन : ३५ होते हुए भी जैसे दरवाजे बन्द होने पर भी कमरे में प्रवेश कर जाते हैं उसी प्रकार शब्द भी प्रवेश कर जाते हैं । पुनः आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के आधार पर यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि गहन अवरोध के होने पर अथवा वायु शून्यता की स्थिति में शब्दों का श्रवण या शब्दगति बाधित हो जाती है । अतः जैनियों का शब्द को पौद्गलिकता का सिद्धान्त वैज्ञानिक दृष्टि से अधिक संगतिपूर्ण है।'
३. तीसरे सावयव होना भी शब्दों के भौतिक होने की आवश्यक शर्त नहीं मानी जा सकतो है। प्रकाश और अणु भौतिक संरचनाएँ हैं, फिर भी वे निरवयव हैं। जो भी भौतिक होगा वह सभी सावयव होगा-ऐसा सिद्धान्त नहीं बनाया जा सकता है। अतः शब्दों का भौतिक होना उनके सावयव होने की अनिवार्य शर्त नहीं है।
४ चौथी आपत्ति के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों का प्रत्युत्तर यह है कि गन्ध के परमाणुओं की तरह शब्द के परमाणु भी दूसरों से बिना टकराए अबाधित रूप से प्रवेश करने की सामर्थ्य रखते हैं। जिस प्रकार नासिका के बालों से बिना टकराये ही गन्ध के परमाणु नासिका में प्रवेश कर जाते हैं उसी प्रकार शब्द के परमाणु श्रोत्रेन्द्रिय में प्रवेश कर जाते हैं। पुनः जैन दार्शनिक तो शब्द (ध्वनि) की उत्पत्ति भाषा-वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं के प्रयत्नजन्य पारस्परिक संघर्ष से ही मानते हैं । पुनः उनकी मान्यता है कि भाषा-वर्गणा के पुद्गल परमाणु एक-दूसरे को शब्दायमान करते हुए या वासित करते हुए आगे गति करते हैं और इससे उनकी पौद्गलिकता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है ।
वैयाकरणिकों ने भी नैयायिकों के समान हो जैनों के शब्दस्वरूप की आलोचना की है। उन्होंने भी शब्द को पौद्गलिक मानने के सम्बन्ध में वे ही आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं जो नैयायिकों ने प्रस्तुत की हैं । अतः उनकी आलोचनाओं का पृथक् से प्रत्युत्तर देना आवश्यक नहीं है । आज हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं और विज्ञान ने शब्द के पौद्गलिक स्वरूप को सिद्ध कर दिया है। अतः शब्दध्वनि को पौद्गलिक मानने के सम्बन्ध में किसी को भी बाधा नहीं होनी चाहिए। यद्यपि यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैनों ने शब्द के भौतिक स्वरूप की जो स्थापना की है वह शब्द-ध्वनि के सम्बन्ध में है, उसके बुद्धयर्थ के सम्बन्ध में नहीं है। यदि हम शब्द को वक्ता और श्रोता के आशय या बुद्धयर्थ से सम्बन्धित करते हैं अथवा उसका तात्पर्य अर्थबोध कराना या अथबोध करना मानते हैं तो निश्चय हो वह भौतिक नहीं है। वस्तुतः यह विवाद शब्द के भाषायी अर्थ की अस्पष्टता के कारण ही है । मेरी दृष्टि में शब्द-ध्वनि को पौद्गलिक मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार यदि हम वक्ता की इच्छा और श्रोता के अर्थबोध को ही शब्द का स्वरूप मानें तो उसे चैतसिक मानने में जैनों को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। भारतीय दर्शन का दुर्भाग्य यही रहा है कि दार्शनिकों ने शब्दों को भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया किन्तु जब आलोचना का प्रश्न उपस्थित हुआ तो इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि किस दर्शन में शब्द को किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है । जेन शब्द का जो आशय समझते हैं वह मीमांसकों के १. The Philosophy of Word and Meaning, p. 52. २. (अ) प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, टोका स्याद्वादरत्नाकर सुत्र ४।९, पृ० ६३९-४० ।
(a) The Philosophy of Word and Meaning, p. 53-54.
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