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३४ : भाषादर्शन
जैनों के अनुसार भी एक ओर शुद्ध आत्म तत्त्व के रूप में सिद्ध को अभाषक कहा गया है, तो दूसरी ओर शुद्ध जड़तत्त्व भी अभाषक है। भाषा जीव के प्रयत्नों का परिणाम है किन्तु यह प्रयत्न सशरीरी जीव के द्वारा ही सम्भव है । जब तक श्रोता और वक्ता दोनों ही बुद्धियुक्त न हों, ध्वनि संकेतों और अन्य संकेतों से कोई अर्थ-बोध नहीं होता।
भाषा का कार्य है अर्थबोध कराना तथा अर्थबोध करना और यह सामर्थ्य केवल बुद्धियुक्त चेतन प्राणियों में ही सम्भव है। भाषायी संकेत चाहे वे ध्वनिसंकेत हों, लिपिसंकेत हों या अन्य किसी प्रकार के संकेत हों, संकेत रूप में जड़ हो सकते हैं, किन्तु उनसे होने वाला अर्थबोध सदैव चेतन है और यही अर्थ-बोध भाषा का मूल प्राण है। अतः भाषा चेतन जगत् का एक व्यवहार है जिसके उपकरण जड़ हैं किन्तु उनका प्रयोग चेतन सत्ता के द्वारा ही होता है। शब्द की आण्विक संरचना का सिद्धान्त
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में शब्द की आण्विक संरचना के सिद्धान्त का संकेत किया है, किन्तु उसके टीकाकारों ने इस सम्बन्ध में अधिक कुछ प्रकाश नहीं डाला कि यह सिद्धान्त किन विचारकों का है । स्पष्ट है कि यह जैनमत है क्योंकि जैनविचारक ही शब्दों को भौतिक संरचना एवं पुद्गल पर्याय मानते हैं। जैनों ने भाषा अर्थात् शब्दध्वनि को एक विशेष प्रकार के पुद्गलों से उत्पन्न माना है। शब्द को पुद्गल का पर्याय बतलाया गया है। पुद्गल की विविध पर्यायों (अवस्थाओं) में एक पर्याय शब्द भी है।
___ न्याय दार्शनिकों ने जैनियों के इस सिद्धान्त का खण्डन किया है। वे कहते हैं कि यदि शब्द भौतिक है, तो उनमें स्पर्श गुण होना चाहिए। नैयायिकों की दूसरी आपत्ति यह है कि यदि शब्द पुद्गल रूप है तो उसे किन्हीं अवरोधों से बाधित होना चाहिए। उनकी तीसरी आपत्ति यह भी है कि यदि शब्द भौतिक होते तो उनके अवयव होते किन्तु शब्दों के कोई अवयव नहीं पाये जाते हैं, इसी प्रकार उनकी चौथी आपत्ति यह है कि यदि शब्द एक भौतिक संरचना है तो दूसरे अणुओं या स्कन्धों से उनकी टकराहट होना चाहिए । लेकिन ये सब गुण शब्दों में नहीं पाए जाते हैं, अतः नैयायिकों के अनुसार शब्दों को पुद्गल का पर्याय मानना या भौतिक संरचना मानना एक असंगत कल्पना है।
नैयायिकों की इन आपत्तियों के विरुद्ध जैनियों का कहना है कि ये आपत्तियाँ उनके सिद्धान्तों पर लागू नहीं होती।
१. शब्दों में स्पर्श गुण होते हुए भी वह अव्यक्त रह सकता है और हमारी स्पर्श-इन्द्रिय से आग्राह्य बना रह सकता है। संसार में अनेक ऐसी सूक्ष्म भौतिक संरचनाएँ हैं, जिन्हें हमारी स्पर्शेन्द्रिय ग्रहण नहीं कर पाती हैं। यह बहुत ही स्पष्ट है कि शब्दों की संवेदना वायु के आधार पर निर्भर करती है । अनेक स्थितियों में अनुकूल दिशा की वायु होने पर दूर के शब्द भी सुने जा सकते हैं। किन्तु प्रतिकूल वायु होने पर पास के शब्द भी सुनाई नहीं देते। इससे यही सिद्ध होता है कि शब्दों में वायु या दूसरे भौतिक पदार्थों के समान ही स्पर्श गुण है। ..
. २. दूसरी आपत्ति के सम्बन्ध में जैनियों का कहना है कि प्रथम तो पोद्गलिक शब्दों का अवरोधों से बाधित होना भी आवश्यक नहीं है। जिस प्रकार गन्ध के परमाणु कुछ बाधाओं के
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