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जैन शब्ददर्शन : ३३ जहाँ तक लिखित भाषा को चक्षु-इन्द्रिय से पढ़कर होनेवाले अर्थबोध का प्रश्न है, जैन नैयायिकों के विपरीत बौद्धों के समान यह मानते हैं कि चक्षु-इन्द्रिय अप्राप्यकारी है अर्थात् अपने विषय का साक्षात् सम्पर्क किये बिना दूर से ही उससे अर्थबोध प्राप्त करती है। जैनों के अनुसार लेखन और पठन की प्रक्रिया में अर्थबोध की प्रक्रिया इस प्रकार घटित होती है--सर्वप्रथम लेखक के मन में अपने भावों की अभिव्यक्ति की प्रेरणा होती है अतः वह उन भावों के शब्द प्रतीकों को कागज या अन्य किसी वस्तु पर लिख देता है, अर्थबोध करनेवाला व्यक्ति प्रथम तो उन शब्दप्रतीकों को देखता है, फिर पूर्व अनुभव के आधार पर वे प्रतीक किस पदार्थ या वस्तु के लिए प्रयोग किये जाते हैं, यह जानता है फिर जानने के पश्चात् प्रयुक्त शब्दों से अर्थबोध करता है। जैनों के अनुसार अर्थबोध की प्रक्रिया में मन भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, उन्होंने मन को भी अप्राप्यकारी माना है अर्थात् वह भी अपने विषय को साक्षात् सम्पर्क किये बिना ही ग्रहण करता है। वह इन्द्रियों से जो कुछ सूचना मिलती है उससे बिम्ब बनाता है और उन बिम्बों के माध्यम से हो अर्थबोध कराता है। भाषा सम्बन्धी अर्थबोध में मन अव्यवहित (Direct) और इन्द्रियाँ व्यवहित (Indirect) कारण हैं। वस्तुतः जो जीव आध्यात्मिक दृष्टि से जितना विकसित क्षमता वाला होता है उसमें भाषावर्गणा के पुद्गलों को भाषा के रूप में परिणित करने की तथा उच्चरित एवं लिखित शब्दों से अर्थबोध करने की शक्ति भी उतनी ही अधिक होती है । हमारी भाषायी सम्प्रेषणीयता हमारे दैहिक और बौद्धिक विकास पर ही निर्भर करती है जिसे जैनों ने अपनी पारिभाषिक शब्दावली में नामकर्म के क्षयोपशम का परिणाम माना है । जिस प्राणी के नामकर्म का क्षयोपशम जितना अधिक होगा उसकी भाषायी सम्प्रेषणीयता और ग्रहणशीलता भी उतनी ही समर्थ होगी। क्या भाषा रूप में परिणत शब्द पौद्गलिक ही है ?
सामान्यतया जैन दार्शनिकों ने शब्द को पद्गल की पर्याय माना है। उत्तराध्ययन, तत्त्वार्थसूत्र आदि सभी ग्रन्थों में उसे पौद्गलिक माना गया है। यह निश्चित सत्य है कि शब्द ध्वनि पुद्गल को पर्याय है । किन्तु भाषा रूप में परिणत अर्थबोध करानेवाले शब्द को एकान्त रूप से पौद्गलिक या जड़ मानना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि स्वयं जैनों के अनुसार भी भाषा की उत्पत्ति जीव अर्थात् चेतन सत्ता से मानी गयी है। साथ ही यह भी माना गया है कि अक्षरात्मक भाषा प्रायोगिक शब्दों से बनतो है, चूँकि प्रायोगिक शब्द वे हैं जिन्हें जीव जड़ के सहयोग से उत्पन्न करता है, अतः एकान्त रूप से उन्हें जड़ नहीं कहा जा सकता । शब्द ध्वनि चाहे जड़ या पुद्गल की पर्याय हो किन्तु शब्द को उत्पत्ति जीव के प्रयत्न के परिणामस्वरूप ही होती है। पूनः शब्द के अर्थ-बोध के लिए और भाषा की अभिव्यक्ति के लिए एक बुद्धियुक्त चेतन सत्ता को आवश्यकता होती है, अतः भाषा केवल जड़ का परिणाम नहीं है। वह जड़ और चेतन के सहयोग का ही परिणाम है । भाषा प्रयत्नजन्य है और प्रयत्न के लिए चेतन सत्ता का होना आवश्यक है। अतः जैनों के अनुसार भी भाषा को एकान्त रूप से जड़ अथवा एकान्त रूप से चेतन नहीं कहा जा सकता है, वह उभय के संयोग का परिणाम है। दूसरे शब्दों में वह एक बुद्धियुक्त चेतन शरीर के प्रयत्नों का परिणाम है। भाषा जड़ और चेतन का संयुक्त परिणाम है अतः वह एकान्ततः जड़ या चेतन नहीं है । शब्द ध्वनि एवं अक्षर-चिह्न निश्चय ही भौतिक संरचनायें हैं, किन्तु उनके द्वारा किया गया अर्थ-संकेत और अर्थ-बोध बुद्धियुक्त चेतन सत्ता के बिना सम्भव नहीं है।
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