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३२ : जन भाषादर्शन
तक श्रव्यरूप में ही पहुँचें । यह श्रव्यमान ध्वनि तीन प्रकार की हो सकती है - उच्चरित, वासित, उच्चरित - वासित (मिश्र) । इसमें वक्ता द्वारा बोला गया मूल शब्द उच्चरित है। वक्ता द्वारा बोला गया यह शब्द जब अपने अनुरूप दूसरी ध्वनितरंगों को उत्पन्न करता है और वे दूसरी ध्वनितरंगें जब श्रोता तक पहुँचती हैं तब वह शब्द वासित होता है अर्थात् उन उच्चरित शब्दों से प्रकम्पित या शब्दायमान होकर जो अन्य शब्द ध्वनि निकलती है. वह वासित होती है जैसे ध्वनिविस्तारक यन्त्र से निकले शब्द तथा जिस ध्वनि में उच्चरित और वासित दोनों प्रकार की शब्द- ध्वनियाँ रहती हैं वह उच्चरित -वासित (मिश्र) शब्दध्वनि होती है। इसी प्रकार वक्ता की दृष्टि से भी ध्वनि या द्रव्यभाषा तीन प्रकार की मानी गयी है-ग्रहण, निःसरण और पराधात ।' वचनयोग वाली आत्मा अर्थात् वक्ता द्वारा गृहोत भाषावर्गणा के पुद्गल - ग्रहण, उसके द्वारा उच्चरित भाषावर्गणा के पुदगल - निःसरण और उच्चरित भाषावर्गणा के पुद्गल द्वारा संस्कारित ( वासित) अन्य भाषावर्गणा के पुद्गल - पराधात ।
दार्शनिक दृष्टि से यहाँ प्रथम महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि श्रोत्रेन्द्रिय शब्द का ग्रहण किस प्रकार से करती है । बौद्धों ने चक्षुइन्द्रिय के साथ-साथ श्रोत्रेन्द्रिय को भी अप्राप्यकारी माना है अर्थात् उनके अनुसार चक्षु के समान श्रोत्रेन्द्रिय भी अपने विषय का ग्रहण दूर से बिना उनका संस्पर्श किये ही करती है । बौद्धों की इस धारणा के विपरीत जैन दार्शनिकों की मान्यता यह है कि श्रोत्रेन्द्रिय प्राप्यकारी है। जब ध्वनि का श्रोत्रेन्द्रिय से संस्पर्श होता है तभी शब्द - ज्ञान होता है । फिर ध्वनि चाहे दूर देश में ही उत्पन्न क्यों न हो। उनके अनुसार ध्वनि अपने प्रसरणशील स्वभाव के कारण कर्णेन्द्रिय तक पहुँचती है और वहाँ पहुँचकर श्रोता को शब्दबोध कराती है । जैन दार्शनिकों के अनुसार ध्वनि तरंगें पौद्गलिक एवं प्रसरणशील स्वभाववाली हैं । यद्यपि मीमांसकों ने भी शब्द को लोकव्यापी माना था किन्तु उनकी यह अवधारणा जैनों की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है । उनके अनुसार शब्द उत्पन्न नहीं होता है, वह स्वरूपतः ही लोकव्यापी है । जबकि जैनों के अनुसार शब्द उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर अपने प्रसरणशील स्वभाव के कारण लोक में व्याप्त होता हुआ लोकान्त तक जाकर पर्यवसित हो जाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जंनों ने सर्वप्रथम शब्द को पौद्गलिक ( Material) और तरंगरूप प्रस्थापित कर उसे एक वैज्ञानिक आधार दिया है । आज वैज्ञानिक भी शब्द को इसी रूप में स्वीकार करते हैं । जहाँ तक भाषा के श्राव्य होने का प्रश्न है उनका कथन है कि भाषा वर्गणा के पुद्गल (विशेष प्रकार के भौतिक परमाणु - जिनमें ध्वनि रूप में परिवर्तित होने की योग्यता है) जीव के प्रयत्नों के द्वारा शब्द ध्वनि के रूप में उच्चरित होते हैं अर्थात् जीव अपने शारीरिक प्रयत्नों के द्वारा विश्व में व्याप्त ध्वनि योग्य पदार्थ (मैटर) को तरंगित करता है और ये ध्वनि तरंगें श्रोता तक पहुँचकर श्राव्य बन जाती हैं ।
यहाँ शब्द-श्रवण के माध्यम से होनेवाले अर्थबोध के सम्बन्ध में यह भी समझ लेना आवश्यक है कि वक्ता और श्रोता दोनों के मनस् में बाह्य जगत् को वस्तुओं और उनके सम्बन्धों के लिए निर्धारित समान शब्दप्रतीक या ध्वनिसंकेत होते हैं । जब वक्ता द्वारा शब्दायमान उन ध्वनि संकेतों को श्रोता सुनता है, तो उनके श्रवण से उसके मनस् में वस्तु या वस्तु सम्बन्धों के बिम्ब उभरते हैं और उन बिम्बों के आधार पर श्रोता अर्थबोध प्राप्त करता है । १. दव्वे तिविहा गहणं, तहय निसिरणं पराघाओ । - भाषा रहस्यप्रकरण ( यशोविजय ) २ ।
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