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जेन शब्ददर्शन : ३१ में प्रयुक्त शब्दों के दो रूप हैं-लिखित और उच्चरित । लिखित शब्द से अर्थ-बोध चक्षु-इन्द्रिय के माध्यम से होता है, जबकि उच्चरित एवं श्रव्य भाषा में अर्थ-बोध श्रोत्रेन्द्रिय के माध्यम से होता है । वैसे यदि हम भाषा को व्यापक अर्थ में ग्रहण करें और उसमें अनक्षरात्मक संकेतों को भी स्वीकार करें तो कुछ स्थितियों में हमारी स्पर्शेन्द्रिय से भी अर्थबोध होता है। इस प्रकार अर्थबोध का साधन तीन इन्द्रियाँ होती हैं-स्पर्शेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय । साथ ही विचारशील मन अर्थात बद्धि के अभाव में भी मात्र इन्द्रियों से अर्थबोध संभव नहीं है। ध्वन्यात्मक संकेतों को हम कर्णेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करके अर्थ ग्रहण करते हैं, जबकि लिखित संकेतों को हम चक्षुइन्द्रिय से देखकर दूसरे शब्दों में पढ़कर अर्थबोध ग्रहण करते हैं। जब संकेत इस प्रकार के हों कि उनका बोध स्पर्श के द्वारा सम्भव हो सके तो हम स्पर्शेन्द्रिय के माध्यम से भी अर्थ-बोध करते हैं । अन्धे व्यक्ति ब्रेललिपि को स्पर्शेन्द्रिय से ही पढकर अर्थबोध करते हैं। जैन आचार्यों ने अर्थ-बोध में इन तीनों ही इन्द्रियों और मन को उपयोगी माना है। अच्छा होगा कि हम इन तीनों इन्द्रियों एवं मन की इस ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर विचार करें।
जैनाचार्यों की दृष्टि से वक्ता में जब अपने विचारों जोर भावनाओं को दूसरों के प्रति अभिव्यक्त करने की इच्छा होती है तो सर्वप्रथम मनस् (मनोयोग) सक्रिय होता है । मनस् के सक्रिय होने से वाक् (वचनयोग) सक्रिय होता है। वाक् के सक्रिय होने से शरीर (काययोग) सक्रिय होता है । शरीर के सक्रिय होने पर वक्ता का स्वरयन्त्र भाषा वर्गणा के परमाणुओं अर्थात् ध्वनिरूप में परिवर्तित होने योग्य पुद्गलों परमाणुओं का ग्रहण करता है। फिर उनका भाषारूप में परिणमन करता है अर्थात् उन्हें विशिष्ट शब्दध्वनियों के रूप में परिवर्तित करता है और अन्त में उन ध्वनि रूपों का उत्सर्जन करता है अर्थात् उन्हें बाहर निकालता है। ध्वनिरूप में निकले ये भाषायी पुद्गल आकाश में ध्वनितरंग के रूप में प्रसारित होते हैं। जैन दार्शनिकों ने इन ध्वनितरंगों को प्रसरणशील बताया भो है । प्रज्ञापना सूत्र में कहा गया है कि भाषावर्गणा की ध्वनितरंगें लोकान्त तक जाती हैं।
शब्द-ध्वनि के प्रसरण की यह प्रक्रिया निम्नरूप में घटित होती है। सर्वप्रथम ध्वनि रूप में निःसत पुदगल अपने समीपस्थ पुद्गल स्कन्धों को प्रकम्पित कर अपनी शक्ति के अनुरूप उन्हें शब्दायमान करते हैं। दूसरे शब्दों में उन ध्वनिरूप पुद्गलों के निमित्त से भाषावर्गणा के दूसरे पुद्गलों में भी शब्द-पर्याय उत्पन्न हो जाती है, वे शब्दायमान दूसरे पुद्गल पुनः अपने समीपस्थ पुद्गलों को शब्दायमान करते हैं और इस प्रकार क्रमशः उत्पन्न होती हुई ये ध्वनि-तरंगें भाषावर्गणा के पुद्गलों के माध्यम से वीचितरंगन्याय की भाँति लोकान्त तक पहुँच जाती हैं । जिस प्रकार जलाशय में फेंके गये एक पत्थर से प्रकम्पित जल में उत्पन्न तरंगें अपने समीपस्थ जल को क्रमशः प्रकम्पित करते हए जलाशय के तट तक पहुँच जातो हैं, उसी प्रकार शब्द-ध्वनियाँ भी लोकान्त तक अपनी यात्रा करती हैं। फिर भी ध्वनि की प्रसरणक्षमता वक्ता की शक्ति पर निर्भर करती है, कुछ ध्वनि-तरंगें वक्ता के स्वरयन्त्र से निकलकर दूर तक श्रव्यरूप में जाती हैं जबकि कुछ थोड़ी दूर जाकर अश्रव्य बन जाती हैं। अतः यह आवश्यक नहीं है कि सभी शब्द लोकान्त १. भासालोगंतपज्जवसिया पण्णत्ता । -प्रज्ञापनासूत्र भाषापद, १५ । २. द्रष्टव्य-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४ पृ. ३ ।
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