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________________ ३६ : भाषादर्शन द्वारा समझे गये शब्द के आशय से पूर्णतया भिन्न है। यदि हम परस्पर एक दूसरे के उन आशयों को समझ लें तो सम्भवतः विवाद के अधिक कारण शेष नहीं रहते । जैनों के अनुसार शब्द ध्वनिरूप है इसलिए वह भौतिक है जबकि मीमांसकों और वैयाकरणिकों के अनुसार वह बुद्धिरूप है जो कि ध्वनि का कारण है, अतः वह अभौतिक है। जैन दार्शनिकों ने शब्द को ध्वनिरूप मानकर ही उसे पुद्गल की पर्याय माना है और इस दृष्टि से उनके अनुसार शब्द विवर्त न होकर वास्तविक है। शब्द की अनित्यता भाषा शब्दों से बनी हुई है। शब्द भाषा के मूलभूत घटक हैं। शब्द के सम्बन्ध में सबसे प्रमुख दार्शनिक समस्या इस प्रश्न को लेकर है कि शब्द नित्य है अथवा अनित्य है ? इस सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में दो मुख्य विचारधाराएँ देखी जाती हैं। एक ओर मीमांसा दर्शन और वैयाकरण दर्शन शब्द को नित्य मानते हैं तो दूसरी ओर न्याय-वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध और जैन दर्शन शब्द को अनित्य मानते हैं । जैनों का स्पष्ट विचार है कि शब्द अनित्य है क्योंकि वह उत्पन्न होता है। यद्यपि जहाँ तक मनुष्य के द्वारा बोले गए शब्दों अर्थात् ध्वनि का प्रश्न है उसकी अनित्यता के सम्बन्ध में मीमांसकों और वैयाकरणिकों को भी कोई आपत्ति नहीं है किन्तु मनुष्य द्वारा उच्चरित शब्दों अर्थात् ध्वनियों का आधार वे अनादि शब्द को मानते हैं । उनके अनुसार यही ध्वनि का कारण रूप शब्द ही नित्य माना गया है। उन्होंने शब्द को इसलिये भी नित्य माना है कि शब्दों की नित्यता के आधार पर ही वेदों की नित्यता और अपौरुषेयता निर्भर करती है। वैयाकरणिक ने शब्द को ही परम तत्त्व (शब्द-ब्रह्म) मानकर उसकी नित्यता को सिद्धि की है। शब्दों की नित्यता और अनित्यता के प्रश्न को लेकर जैन दार्शनिकों ने पर्याप्त रूप से विचार किया है । यद्यपि वे शब्द और ध्वनि में अन्तर नहीं करते हैं। शब्द से उनका तात्पर्य शब्द ध्वनि से ही है। वे शब्द को उत्पन्न मानते हैं। प्रज्ञापना सूत्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि भाषा की उत्पत्ति शरीर से होती है और उसका पर्यवसान लोकान्त में होता है। जो उत्पन्न होता है उसका विनाश अनिवार्य है । यदि शब्द उत्पन्न है तो वह नित्य नहीं है। पुनः जैन दार्शनिकों ने शब्द को पुद्गल का पर्याय माना है और चूंकि कोई भी पर्याय नित्य नहीं होती अतः शब्द नित्य नहीं हो सकता। वस्तुतः शब्द-नित्यवाद और शब्द-अनित्यवाद का यह विवाद स्वयं भाषा की अस्पष्टता के कारण है । शब्द नित्यवादियों के अनुसार शब्द 'शब्द-ध्वनि' से भिन्न है और शब्दध्वनि का कारण है, जबकि शब्द अनित्यवादियों के लिए शब्द और शब्दध्वनि एक ही है। पुनः प्रथम वर्ग के अनुसार शब्द शब्दध्वनि का कारण है अतः अपौरुषेय है। जबकि दूसरे वर्ग के अनुसार शब्द ध्वनि रूप में पुरुष के प्रयत्नों का कार्य है । जहाँ तक जैन दार्शनिकों का प्रश्न है, उन्होंने शब्द को शब्द-ध्वनि के रूप में ही स्वीकार किया है और इसलिए उसे अनित्य ही माना है। १. विस्तृत विवेचन के लिए देखें (अ) न्यायकुमुदचन्द्र, पृ०७०३ से ७२० । (ब) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ४०६ से ४२७ । (स) जैन न्याय (पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री), पृ० ३५४ से ३६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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