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२४ : भाषादर्शन वाचक होता है, वह व्यञ्जन है। वस्तुतः समस्त पदार्थ स्वर, व्यञ्जन और उनके विविध संयोगों से निर्मित शब्दों से अभिव्यञ्जित या वाच्य बनते हैं। इस प्रकार समस्त अक्षरात्मक भाषाओं के मूल उत्स स्वर-व्यञ्जन हैं, क्योंकि उन्हीं के आधार पर भाषा निर्मित होती है।
__ मातृकाक्षर-जैनाचार्यों ने ध्वनिविज्ञान एवं लिपिविज्ञान की दृष्टि से मूल वर्गों के प्रश्न पर गम्भीर रूप से कोई चर्चा की हो, यह मुझे ज्ञात नहीं है। मेरे समक्ष समवायांग का एक ही सन्दर्भ है, जहाँ छियालीस मातृकाक्षरों का उल्लेख है। यद्यपि वहाँ भी वे मातृकाक्षर कौन से हैं यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है । टीकाकार अभयदेव ने ऋ, ऋ, ल, लु इन चार स्वरों एवं ळ का वर्जन करके निम्न ४६ वर्ण माने हैं
स्वर-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं अः=१२ व्य ञ्जन-क, ख, ग, घ, ङ
च, छ, ज, झ, ञ ट, ठ, ड, ढ, ण त, थ, द, ध, न
प, फ, ब, भ, म अन्तस्थ-य, र, ल, व उष्मवर्ण-श, स, ष, ह
टीकाकार ने ४६ की संख्या पूर्ण करने के लिए इसमें 'क्ष' को और जोड़ा है, किन्तु 'क्ष' संयुक्ताक्षर है, अतः उसे लेने पर 'त्र' और 'ज्ञ' को भी लेना होगा। मेरी दृष्टि में 'क्ष' के स्थान 'ळ' को लेना चाहिए, क्योंकि उच्चारण भेद और प्राकृत-पालि भाषा की दृष्टि से यह स्वतन्त्र अक्षर है । आज भो मराठी, गुजराती आदि में ळ मान्य अक्षर है । लिपि
अक्षर के स्वरूप पर विचार करते हुए हमने देखा है कि जैन परम्परा में अक्षरों के तीन विभाग किये गये हैं
(१) संज्ञा-अक्षर, (२) व्यञ्जन-अक्षर और (३) लब्ध्यक्षर। इनमें संज्ञा-अक्षर का सम्बन्ध लिपि से है । जैन परम्परा के अनुसार लिपि का विकास आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से माना जाता है। जैनों की यह मान्यता है कि भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि सिखाई और उसी के नाम पर वह लिपि 'ब्राह्मी लिपि' कहलायी । जैन आगम साहित्य में हमें निम्न अठारह लिपियों के उल्लेख मिलते हैं
जिज्जइ जेणऽत्यो घडो ब्व दीवेण वंजणं तो तं ।
अत्थं पाएण सरा वजेंति न केवला जेणं ।।--विशेषावश्यक भाष्य ४६३ । २. छयालीस माउया पया-समवायांग ४६ । ३. देखें-समवायांग ४६ टीका--अभयदेव, पृष्ठ ६५ !
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