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________________ भाषा और लिपि : २५ mi ). क्रमाङ्क समवायाङ्ग 'प्रज्ञापना विशेषावश्यक भाष्य (१८ वां समवाय) (जीवप्रज्ञापना ७१) (हेमचन्द्र टीका गाथा ४६४) बंभी (ब्राह्मी) बंभी (ब्राह्मी) जवणि (यवनी) जवणालिया (यावनो) जवणाणिया (यवनानी) हंस (हंस) दोस ऊरिया (दोष उपरिका) दोसापुरिया (दोसापुरीया) भूय (भूत) खरोट्ठिया (खरोष्ट्रिका) खरोट्ठी (खरोष्ट्री) जक्खी (यक्ष) भोगवइया (भोगवतिका) भोगवइया (भोगवती) रक्खसी (राक्षसी) पहाराइया (प्रहारातिका) पहराइया उड्डी (उडिया) खरसाविया (खरश्राविका) अंतक्खरिया तुरुक्की (तुर्की) उच्चतरिया (उच्चत्तरिका) पुक्खरसारिया कीरी (क्रीट) अक्खरपुट्टिया (अक्षरपृष्ठिका) अक्खरपुट्टिया दविड़ी (द्राविडी) वेणतिया (वेणकिया) वेणइया (वैनयिकी) सिंधवो (सिन्धी) णिण्हइया (निह्नविका) निण्हइया (निह्नविकी) मालविणी (मालवी) १२. अंक (अङ्क) अंक (अङ्क) नडि १३. गणिअ (गणित) गणिय (गणित) नागरि (नागरी) गंधव्व (गान्धर्व)। गंधव्व (गन्धर्व) लाडलिवी (लाट) भूत (भूत) पारसी (पारसी) १५. आदंश (आदर्श) आयंस (आदर्श) अनिमित्ती माहेसरी (माहेश्वरी) माहेसरी (माहेश्वरी) चाणक्की (चाणक्यी) दामि (दामि) (दोमि) (द्रोमि) मूलदेवी (मूलदेवी) १८. वोलिन्द (पोलिन्दी) पोलिंदी (पोलिन्दी) उपर्यक्त लिपियों के नामों पर तलनात्मक दष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि प्रज्ञापना और समवायाज की सची लगभग समान है। मात्र दो नामों में किञ्चित अन्तर दष्टिगत होता है। जहाँ समवायाङ्ग में खरसाविया लिपि का उल्लेख मिलता है वहाँ प्रज्ञापना में अंतक्खरिया का उल्लेख है । और, इसी प्रकार समवायाङ्ग में उल्लिखित उच्चतरिया के स्थान पर प्रज्ञापना में पुक्खरसारिया का उल्लेख मिलता है। जहाँ तक समवायाङ्ग और प्रज्ञापना की सूचियों का विशेषावश्यक भाष्य की टीका में उल्लिखित लिपियों से तुलना का प्रश्न है इस सूची का समवायाङ्ग और प्रज्ञापना में प्राप्त सूचियों से कोई भी सामञ्जस्य नहीं है, केवल जवणी (यवनी) को छोड़कर शेष सूची भिन्न हो है। इस सम्बन्ध में एक और विचारणीय प्रश्न यह भी है कि प्रज्ञापनासूत्र के मूलपाठ में इन सभी लिपियों को ब्राह्मीलिपि के हो लेखविधान अर्थात् प्रकार कहा गया है । उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ब्राह्मीलिपि के निम्न अठारह लेख-विधान हैं। अतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या समवायाङ्ग और प्रज्ञापना में उल्लिखित ये लिपियाँ स्वतन्त्र लिपियाँ थीं या ब्राह्मीलिपि के ही उपप्रकार थे क्योंकि वर्तमान में अधिकांश विद्वान् खरोष्ठीलिपि को एक स्वतन्त्र लिपि के रूप में स्वीकार करते हैं। अतः इस सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। यद्यपि विशेषावश्यक भाष्य की टीका में जिन लिपियों का वर्णन हुआ है उनमें से अधिकांश को ब्राह्मीलिपि का ही विकसित रूप कहा जा सकता है। १७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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