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विषयप्रवेश : ७
अपितु अनुदीरित है; वेद्यमान वेदित नहीं, अपितु अवेदित है; प्रहीणमान प्रहीण नहीं, अपितु अप्रहीण है; छिद्यमान छिन्न नहीं, अपितु अछिन्न है; भिद्यमान भिन्न नहीं, अपितु अभिन्न है; दग्धमान दग्ध नहीं, अपितु अदग्ध है; म्रियमान मृत नहीं, अपितु अमृत है; निर्जीर्णमान निर्जीर्ण नहीं, अपितु अनिर्जीर्ण है । '
वस्तुतः महावीर और जमाली के मध्य जो यह विवाद चला, उसका मुख्य आधार भाषाविश्लेषण है । महावीर की मान्यता यह थी कि चाहे व्यवहार के क्षेत्र में क्रियमान, दग्धमान, भिद्यमान आदि क्रिया-विशेषणों का प्रयोग करते हों, किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से ये भाषायी प्रयोग असंगत हैं । अंग्रेजी भाषा में जिसे हम Continuous Present कहते हैं और संस्कृत भाषा में जिसे वर्तमानकालिक कृदन्त के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं अथवा हिन्दी भाषा में - वह खा रहा है, जा रहा है, लिख रहा है आदि के रूप में जो क्रिया-पद प्रयोग करते हैं - वे वस्तुतः वर्तमानकालिक न होकर तीनों कालों में उस क्रिया का होना सूचित करते हैं। 'मैं लिख रहा हूँ' इस वाक्य का तात्पर्य है, मैंने भूतकाल में कुछ लिखा, वर्तमान में लिखता हूँ और मेरी यह लिखने की क्रिया भविष्य में भी होगी । वस्तुतः महावीर ने उपयुक्त व्याख्या में क्रिया के भूतकालिक पक्ष को अधिक महत्त्वपूर्ण माना और यह सिद्धान्त स्थापित किया कि क्रियमान को कृत कहा जा सकता है; जबकि जमाली ने उसके भविष्य -कालिक पक्ष को अधिक महत्त्वपूर्ण माना और क्रियमान को अकृत कहा । महावीर ने जमाली की मान्यता - कि जब तक कोई क्रिया पूर्णतः समाप्त न हो जाये, तब तक उसे कृत नहीं कहना — में यह दोष देखा कि क्रियमान- क्रिया के पूर्व समयों में कुछ कार्य तो अवश्य हुआ है, अतः उसे अकृत कैसे कहा जा सकता है ? उदाहरणार्थ - यदि कोई व्यक्ति चल रहा है, तो कथन-काल के पूर्व वह कुछ तो चल चुका है अथवा कोई वस्तु जल रही है तो कथन - काल तक वह कुछ तो जल चुकी है । अतः उन्होंने माना कि वाच्यता के पूर्व के क्रिया के भूतकालिक पक्ष की दृष्टि से क्रियमान को कृत और दह्यमान को दग्ध कहा जा सकता है । व्यावहारिक भाषा में भी हम ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे यदि कोई व्यक्ति कलकत्ता के लिये घर से रवाना हो गया है, तो उसके
१. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - जणं समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ — एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेदिज्जमाणे वेदिए, पहिज्जमाणे पहीणे, छिज्जमाणे छिण्णे, भिज्जमाणे भिण्णे, दज्झमाणे दड्ढे, मिज्जमाणे मए, निज्जरिज्जमाणे निजिणे, तण्णं मिच्छा । इमं च णं पच्चक्खमेव दोसइ सेज्जा - संथारए कज्जमाणे' अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए । जम्हा णं सेज्जा- संथारए कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए | तुम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे वि अनिज्जिणे - एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी — जण्णं देवाणुप्पिया ! समजे भगवं महावीरे एव माइक्खइ जाव परूवेइ — एवं खलु चलमाणे चलिए जाव निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे, तण्णं मिच्छा । इमं चणं पच्च क्खमेव दीसइ सेज्जो - संथारए कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए । जम्हा णं सेज्जा- संथारए कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए । तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे वि अनिज्जिणे ||
- भगवइ ( जैन विश्व भारती, लाडनूं), ९ / ३३/२२८ ।
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