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६ : जैन भाषा दर्शन
संघभेद भाषा-विश्लेषण को लेकर हुआ । इस प्रथम संघभेद के कर्ता भी अन्य कोई नहीं, स्वयं भगवान् महावीर के भागिनेय एवं जामाता जमाली थे । विवाद का मूल विषय था- क्रियमान (Presento-cntinuous ) का क्या अथ है ? उसे कृत कहा जा सकता है या नहीं ? महावीर की मान्यता यह थी कि क्रियमान को कृत कहा जा सकता है, जबकि जमाली क्रियमान को अकृत कहते थे । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में गौतम महावीर के सम्मुख यही प्रश्न उपस्थित करते हैं
हे भगवन् ! क्या चलमान ( चलते हुए) को चलित ( चला), उदीर्यमान को उदीरित, वेद्यमान को वेदित, प्रहोणमान को प्रहीण, छिद्यमान को छिन्न भिद्यमान को भिन्न, दह्यमान ( जल रहे) को दग्ध (जला), म्रियमान को मृत, निर्जीर्यमान को निजीर्ण कहा जा सकता है ?
हाँ गोतम ! जो चल रहा है, उसे चला, जो उदीर्यमान है, उसे उदीर्ण; जो वेद्यमान है, उसे वेद्य, जो प्रहीणमान है, उसे प्रहीण; जो छिद्यमान है, उसे छिन्न; जो भिद्यमान है, उसे भिन्न; जो दग्धमान है, उसे दग्ध; जो म्रियमान है, उसे मृत और जो निर्जीर्यमान है, उसे निर्जीर्ण कहा सकता है ।"
इसके विपरीत जमाली की मान्यता यह थी कि कोई भी क्रिया जब तक पूर्ण नहीं हो जाती, तब तक उसे 'कृत' (हुई ) नहीं कहा जा सकता । दूसरे शब्दों में जो चल रहा है, उसे चला और जो जल रहा है, उसे जला नहीं कहा जा सकता । जमाली के द्वारा इस मान्यता को स्वीकृति देने के पीछे भी एक घटना रही हुई है—
घटना ने जमाली को महावीर
किसी समय जमाली अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए श्रावस्ती नगर में आये । उस समय रुक्ष एवं प्रान्त आहार के कारण उनका शरीर रोगग्रस्त हो गया और उन्हें असह्य पीड़ा होने लगी। उन्होंने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि मेरे लिए संस्तारक ( बिछौना) बिछा दो । शिष्य उनके आदेश को मान्य करके बिस्तर बिछाने लगे, इधर प्रबल वेदना से पीडित हो वे बार-बार पूछने लगे कि क्या बिस्तर बिछा दिया गया है ? शिष्यों का उत्तर था - बिस्तर अभी बिछा नहीं है, बिछाया जा रहा है (णो कडे, कज्जति ) । बस इसी के 'क्रियमान कृत' के सिद्धान्त का विरोधी बना दिया । उनके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार आख्यात करते हैं, प्ररूपित करते हैं कि चलमान चलित, उदीर्यमान उदीरित, वेद्यमान वेदित, प्रहीणमान प्रहीण, छिद्यमान छिन्न, भिद्यमान भिन्न, दग्धमान दग्ध, म्रियमान मृत और निर्जीर्णमान निर्जीर्ण है - वह मिथ्या है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि जब तक शय्यासंस्तारक बिछाया जा रहा है, तब तक वह बिछाया गया नहीं है अर्थात् जो क्रियमान है, वह अकृत है (कज्जमाणे अकडे ) । अतः चलमान चलित नहीं, अपितु अचलित है; उदीर्यमान उदीरित नहीं,
१. से नूणं भंते ! चलमाणे चलिए ? ? उदीरिज्जमाणे उदीरिए २ ? वेदिज्जमाणे वेदिए ३ ? पहिज्जमाणे पहीणे ४ ? छिज्जमाणे छिण्णे ५ ? भिज्जमाणे भिण्णे ६ ? दज्झमाणे दड्ढे ७ ? मिज्जमाणे मए ८ ? निज्जरिज्जमाणे निज्जिपणे ९ ?
हंता गोयमा ! चलमाणे चलिए जाव निज्जरिज्ज भाणे निज्जिण्णे ।
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- भगवतीसूत्र १/१/११ ।
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