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________________ विषयप्रवेश : ५ सम्प्रदाय ही भाषा की समस्या को प्रमुख बनाकर चलता है। यह बात अलग है कि शब्द-ब्रह्म की स्थापना कर उसने अपने चिन्तन की दिशा तत्त्वमीमांसा की ओर मोड़ दी हो। बौद्धों ने अपने 'अपोहवाद' में शब्द के वाच्यार्थ के प्रश्न पर काफी गम्भीरता से चर्चा की है। इसीप्रकार वेदों के प्रामाण्य को सिद्ध करने हेतु मीमांसकों ने भाषा-दर्शन के अनेक प्रश्नों को गम्भीरता से उठाया है। जहाँ तक जैनों के भाषा-दर्शन का प्रश्न है. चाहे उन्होंने शब्द की नित्यता एवं शब्द का अर्थ से सम्बन्ध आदि के सन्दर्भ में मीमांसकों, वैयाकरणिकों और बौद्धों के बाद प्रवेश किया हो, किन्तु वस्तुतत्त्व को अनिर्वचनी यता, कथन की सत्यता आदि भाषा-दर्शन के कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिन पर प्राचीनतम जैन आगमों में भी प्रकाश डाला गया है। शब्द की वाच्यता-सामर्थ्य का प्रश्न आचारांग में उपलब्ध है। स्थानांग के १० वें स्थान में सत्य-भाषा, असत्य-भाषा की चर्चा है, प्रज्ञापना का 'भाषा-पद', अनुयागद्वार का नाम-पद भाषा-दर्शन से सम्बन्धित है। भगवतीसूत्र में भी भाषा सम्बन्धी कुछ विवेचनाएं उपलब्ध हैं। महावीर के जीवनही जामातृ जमाली द्वारा उठाया गया विवाद, जिसके कारण संघ-भेद भी हुआ-भाषा-दर्शन से ही सम्बन्धित था। भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में एवं पूनः जमाली वाले प्रसंग में इस चर्चा को विस्तार से उठाया गया है। इन सभी को जैनों के भाषा-दर्शन का एक प्रमुख आधार माना जा सकता है। पुनः निक्षेप और नय की अवधारणाएँ भी आगमों में उपलब्ध हैं, इन अवधारणाओं का मूलभूत उद्देश्य भी वक्ता के कथन की विवक्षा अर्थात् वक्ता के आशय को समझना है। अतः ये अवधारणाएँ भी मूलतः अर्थविज्ञान (Scienee of meaning) और भाषा-दर्शन से सम्बन्धित हैं। पूज्यपाद, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र आदि जैन दार्शनिकों ने क्रमशः तत्त्वार्थवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थों में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध के प्रश्न को लेकर काफी गम्भीरता से चर्चा की है । इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा-विश्लेषण की प्रवृत्ति, जो जैन आगमों में उपलब्ध है, आगे चलकर जैन न्याय के ग्रन्थों में तो काफी विकसित हो गई है। प्रस्तुत निबन्ध में हमने इन्हें सुनियोजित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। जैन भाषा-दर्शन की समस्याएं जैन भाषा-दर्शन की भाषा-विश्लेषण के साथ-साथ निम्न मूलभूत समस्याएँ रही हैंभाषा की उत्पत्ति कैसे होती है ? भाषा की प्रकृति एवं संरचना क्या है ? भाषा अपने अर्थ का बोध कैसे कराती है ? क्या शब्द और उसके वाच्यार्थ में कोई सम्बन्ध है ? और यदि है, तो वह किस प्रकार का सम्बन्ध है ? शब्द का वाच्यार्थ जाति है या व्यक्ति अथवा सामान्य है या विशेष? भाषा को वाच्यता की सीमा क्या है? क्या सत्ता (वस्तुतत्त्व) अनिर्वचनीय या अवाच्य है? भाषा का सत्यता से क्या सम्बन्ध है ? वाक्यों, कथनों अथवा निर्णयों की सत्यता और असत्यता का आधार क्या है ? वाक्य (कथन) कब सत्य होता है और कब असत्य होता है ? वाक्यों के वे कौन से प्रकार या प्रारूप हैं, जो सत्यता और असत्यता की कोटि में नहीं आते हैं ? आदि । प्रस्तुत निबन्ध में हम जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में इन्हीं समस्याओं को समझने का प्रयत्न करेंगे। जैन परम्परा में भाषा-विश्लेषण का एक प्राचीन सन्दर्भ जैन दार्शनिकों के लिए भाषा-विश्लेषण (Linguistic analysis) का प्रश्न कितना महत्त्वपूर्ण रहा है, इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जैन धर्म में महावीर के जीवनकाल में ही प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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