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________________ ४: जैन भाषा-दर्शन आकार (Idea) निहित रहता है (रिपब्लिक, बुक १०, ४९६) । अरस्तू यह मानता है कि क्रिया का प्रयोग बिना कर्ता के नहीं होता । हम यह नहीं कहते 'बैठता है 'चलता है बल्कि, कहते हैं 'वह बैठता है' 'वह चलता हैं । इस भाषिक विशेषता से वह यह निष्कर्ष निकालता है कि कर्ता (द्रव्यों) का स्वतंत्र अस्तित्व होता है,क्रिया का नहीं। (मेटाफिजिक्स बक जेटा, अध्याय १) इसी प्रकार बर्कले यह मानता है कि-सामान्य धारणा के विपरीत भाषा का मुख्य उद्देश्य केवल विचारों का सम्प्रेषण ही नहीं अपितु अन्य उद्देश्य भी हैं, जैसे भावना को उभारना, किसी क्रिया के लिए प्रेरित करना या अवरुद्ध करना, मन में किसी प्रवृत्ति को उत्पन्न करना आदि (उद्धत-Introduction to logic-Copy p. 33)।' हमारे उपर्युक्त वर्गीकरण का अभिप्राय इतना ही है कि किस युग में दार्शनिक चिन्तन की कौन-सी विधा प्रमुख रही है। भाषा का दार्शनिक विश्लेषण पहले भी होता रहा है किन्तु तब वह केवल एक साधन माना गया था। आज भाषा-विश्लेषण दर्शन का एक मात्र कार्य बन गया है। आज दर्शन मात्र भाषा-विश्लेषण है । यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि दर्शन के क्षेत्र में जब एक विधा प्रमुख बन जाती है, तो अन्य विधाएँ मात्र उसका अनुसरण करती हैं और उनके निष्कर्ष उसी प्रमुख विधा के आधार पर निकाले जाते हैं । उदाहरण के लिए मध्ययुग में तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा धर्मशास्त्र का अनुसरण करती प्रतीत होती हैं तो समकालीन चिन्तन में तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचार-दर्शन सभी भाषा-विश्लेषण पर आधारित हो गये हैं और भाषा-विश्लेषण के आधार पर निकाले गये निष्कर्षों के द्वारा उनकी व्याख्या होने लगी है। भारतीय चिन्तन में भाषा-दर्शन का विकास - जहाँ तक भारतीय दर्शन का प्रश्न है, यह सत्य है कि यहाँ भी दर्शन का प्रारम्भ तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों से ही हुआ है । परमसत्ता, जीवन और जगत् प्रारम्भिक भारतीय चिन्तन के केन्द्रबिन्दु रहे हैं । फिर ईसा पूर्व छठी शती से बन्धन या दुःख, बन्धन या दुःख का कारण, मुक्ति और मुक्ति के उपाय भारतीय दार्शनिक चिन्तन के आधार बने और तत्त्वमीमांसा के स्थान पर आचारदर्शन प्रधान केन्द्र बना। किन्तु दार्शनिक चिन्तन के विकास के साथ ही ईसा की प्रथम शताब्दी से ही यहाँ ज्ञानमीमांसा और भाषा-दर्शन की विविध समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श प्रारम्भ हो गया था। यद्यपि प्राचीन भारतीय चिन्तन में भी तत्त्वमीमांसीय और ज्ञानमीमांसीय समस्याओं के साथ-साथ सत्ता की वाच्यता को लेकर भाषा-दर्शन के क्षेत्र में भी किसी सीमा तक दर्शन का प्रवेश हो गया था । भाषादर्शन की अनेक समस्याएँ भारत के दार्शनिक साहित्य में प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती हैं। परमतत्त्व की अनिर्वचनीयता के रूप में भाषा की सामर्थ्य एवं सं की चर्चा हमें औपनिषदिक चिन्तन में भी उपलब्ध हो जाती है। पाणिनि और पतंजलि ने भाषादर्शन सम्बन्धी अनेक समस्याओं को उद्घाटित किया है और जिनके आधार पर आगे चलकर भर्तृहरि ने पूरा वैयाकरण-दर्शन ही खड़ा कर दिया है। इतना ही नहीं, न्याय तथा मीमांसा जैसे आस्तिक दर्शनों में और बौद्ध तथा जैन जैसे नास्तिक कहे जानेवाले दर्शनों में शब्द और उसके वाच्यार्थ की समस्या. शब्द-प्रामाण्य की समस्या तथा भाषायी कथनों की सत्यता व अ समस्या पर काफी गम्भीरता से चर्चा हुई है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र में वैयाकरणिकों का पूरा १. द्रष्टव्य--समकालीन पाश्चात्य दर्शन (सम्पादक-डॉ० लक्ष्मी सक्सेना), पृ० १५३-५४ । 2. All philosophy is critique of language. -Tractatus Logico Philosophicus 4.003. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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