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८: जैन भाषा-दर्शन सम्बन्ध में पूछने पर हम कहते हैं कि वह कलकत्ता गया, चाहे वह अभी कलकत्ता पहुँचा नहीं हो। इसी प्रकार पेन्ट या शर्ट के एक भाग के जलने पर हम यह कहते हैं कि मेरा पेन्ट या शर्ट जल गया। महावीर के उपासक ढंक नामक कुम्भकार ने भाषा के इस व्यावहारिक प्रयोग के आधार पर जमाली की मान्यता को असंगत बताया था।
किसी समय महावीर की पुत्री एवं जमालो की सांसारिक पत्नी प्रियदर्शना अपने श्रमणीसमूह के साथ ढंक कुम्भकार की कुम्भकारशाला में ठहरी हुई थी। ढंक कुम्भकार ने उसके साड़ी के पल्लू पर एक जलता हआ अंगारा डाल दिया, फलतः उसकी साड़ी का एक कोमा जल गया। यह देखकर उसने कहा 'मेरी साड़ी जल गई ।' ढंक ने अवसर का लाभ उठाते हुए कहा-आपके सिद्धान्त के अनुसार जब तक कोई क्रिया पूरी नहीं हो जातो, तब तक वह अकृत होती हैदह्यमान दग्ध नहीं, अपितु अदग्ध है, अतः जब तक पूरी साड़ी जल नहीं जाती, तब तक आपका यह वचन-व्यवहार कि 'साड़ो जल गई' मिथ्या एवं आपके सिद्धान्त का विरोधी होगा। ढंक कुम्भकार की यह युक्ति सफल रही और प्रियदर्शना को महावीर के सिद्धान्त की यथार्थता का बोध हो गया।
वस्तुतः क्रियमान, दह्यमान आदि पद कार्य या क्रिया के सम्पन्न या पूर्ण होने के सूचक तो नहीं हैं, किन्तु वे उसके बिलकुल नहीं होने के सूचक भी नहीं हैं । वे यही सूचित करते हैं कि कार्य या क्रिया का कुछ भाग अवश्य सम्पन्न हो गया है । दह्यमान-यह कृदन्त पद इतना अवश्य सूचित करता है कि जलाने का कुछ कार्य अवश्य हुआ है । पुनः दह्यमान को हम वर्तमानकालिक घटना मानते हैं, किन्तु वर्तमान तो क्षण मात्र होता है । अतः क्षणिक वर्तमान में क्रिया का सतत चालू रहना सम्भव नहीं है। क्षण मात्र की अवस्थिति वाले वर्तमान की अपेक्षा से तो कोई क्रिया या तो कृत होगी या अकृत । चूँकि कथन किये जाने के पूर्व समयों में उस क्रिया का कुछ अंश अवश्य ही हो चुका है, अतः उस दृष्टि से वह कृत कही जा सकती है। जब भी उसे कहने का प्रयत्न किया जाता है, वह भूत का अंग बन जाती है अर्थात् कृत हो जाती है । वस्तुतः क्रियमान यह पद स्वयं ही वदतोव्याघात है। क्रियमान, दह्यमान आदि कृदन्त पदों का शब्दशः 'हो रहा है 'जल रहा है'-ऐसा अर्थ स्वीकार करने का तात्पर्य है, वर्तमान को एक क्षण से अधिक मानना । किन्तु यह मान्यता स्वयं ही आत्मविरोधी है। यद्यपि 'क्रियमान' में क्रिया का जो अंश सम्पन्न नहीं हुआ है, उसकी अपेक्षा से अर्थात् भविष्य में सम्पन्न होने वाले क्रिया के अंश की दृष्टि से अकृतता है, किन्तु वह अकृतता भतकालिक कृतता की एकान्त निषेधक भी नहीं है । सम्पन्न कार्य अंश की अपेक्षा से क्रियमानता में कृतता भी है, अतः क्रियमान को कृत कहा जा सकता है। वस्तुतः "क्रियमान' शब्द आंशिक रूप से कृतता और अकृतता दोनों का सूचक है, अतः एकान्त रूप में उसे अकृत कहना युक्तिसंगत नहीं है। महावीर ने जमाली की 'क्रियमान अकृत है (कज्जमाणे अकडे)-इस धारणा का जो विरोध किया, वह क्रियमान की अकृतता को एकान्त रूप से स्वीकार करने का विरोध है। इस समग्र चर्चा का सार यही है कि शब्द के अर्थ का निश्चय सन्दर्भ और प्रयोग के आधार पर किया जाना चाहिए, एकान्तिक रूप से नहीं ।
१. आवश्यक नियुक्ति हरिभद्रीय वृति (मू० भा० गाथा १२६), पृ० २०८-२०९ ।
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