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________________ परिशिष्ट 'क' प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों को अर्थ वाचकता मीमांसकों और वैयाकरणिकों की यह मान्यता है कि केवल संस्कृत शब्द ही सम्यक् शब्द हैं और उन्हीं में अपने अर्थ की वाचक-शक्ति है । प्राकृत, अपभ्रंश आदि अन्य लोक भाषाओं के शब्दों में अर्थ के प्रतिपादन की सामर्थ्य नहीं है। इन विचारकों की यह भी मान्यता है कि प्राकृत, अपभ्रंश आदि लोकभाषाओं के शब्दों को सुनकर प्रथम संस्कृत शब्दों का स्मरण होता है और फिर उनसे अर्थबोध होता है। इस प्रकार ये विचारक केवल संस्कृत को छोड़कर अन्य सभी भाषाओं और बोलियों में अर्थप्रतिपादन की शक्ति को नहीं मानते हैं। इसके विरोध में जैन दार्श कहना है कि सभी लोकभाषाओं और बोलियों के शब्दों में वाचक-शक्ति होती है। जैन दार्शनिक प्रभाचंद्र ने अपने ग्रन्थ न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड में अनेक तर्कों के आधार पर इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जिस प्रकार संस्कृत ग्रन्थों में वाचकशक्ति है उसी प्रकार प्राकृत, अपभ्रंश आदि लोकभाषाओं के शब्दों में भी वाचकशक्ति है। यह मानना भी समुचित प्रतीत नहीं होता है कि लोकभाषा के शब्दों को सुनकर प्रथमतः हमें उनके संस्कृत पर्यायवाची शब्दों का बोध होता है या स्मरण होता है और फिर उन संस्कृत शब्दों के स्मरण के माध्यम से अर्थ का बोध होता है। यदि इस अवधारणा को स्वीकार किया जायेगा तो फिर वे लोग जो संस्कृत भाषा को नहीं जानते हैं अर्थबोध कर ही नहीं पायेंगे। जब कि व्यवहार के क्षेत्र में हम स्पष्टरूप से इस बात को जानते हैं कि संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ लोग भी लोकभाषाओं के शब्दों के माध्यम से अर्थबोध करते हैं और अपना व्यवहार चलाते हैं। वस्तुतः शब्द को सुनकर उसमें अर्थबोध प्राप्त करने के लिए संकेत ही मुख्य तत्व है। जिस शब्द का जिस अर्थ में जिन लोगों ने संकेत ग्रहण कर लिया है उन्हें उन शब्दों से उस अर्थ का बोध हो जाता है-यह भाषा का साधारण नियम है। यदि केवल संस्कृत शब्दों में ही वाचक-शक्ति होती तो फिर संसार में अनेकों भाषाएं न तो जन्म लेती और न तो उनसे लोक-व्यवहार ही चलता। इस संबंध में जैन दार्शनिकों ने जो व्यापक दृष्टिकोण अपनाया वह निश्चित ही सराहनीय है और हमें एक संकुचित मनोवृत्ति से ऊपर उठाता है । जैन आचार्यों ने सदैव इस बात पर बल दिया है कि अर्थबोध की जितनी सामर्थ्य लोकभाषाओं में होती है उतनी संस्कारित भाषाओं में भी नहीं होती। यही कारण था कि जैनधर्म में तीर्थंकरों और आचार्यों ने लोकभाषा को ही अपने प्रवचन का माध्यम बनाया। केवल संस्कृत के शब्दों में ही वाचकशक्ति मानना तथा उन्हीं के उच्चारण से पुण्य की प्राप्ति मानना यह वर्गस्वार्थ और पक्षव्यामोह की भावना से ग्रसित है और आज इससे उपर उठकर उदारता का परिचय देना आवश्यक है । विस्तृत विवेचन हेतु देखें-(अ) न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ७६२, (ब) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ६६८, (स) जैन दर्शन, पृ० २८१-२८६, (द) जैन न्याय, पृ० २७३-२७७ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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