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वाच्य जाति या व्यक्ति आदि पर विचार करता है। इसी अध्याय में स्फोटवाद और अपोहवाद की अवधारणा और उसकी समीक्षा भी प्रस्तुत की गयी है। साथ ही आकृतिवाद और जेन-दर्शन के सम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है। अध्याय चार मुख्यरूप से वाक्य के स्वरूप से सम्बन्धित है । इसमें वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिक मतों और उनकी समीक्षा प्रस्तुत की गयी है। इसी अध्याय में अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद के स्वरूप की चर्चा की गयी है। अध्याय पांच में वाच्यार्थ-
निर्धारण के सम्बन्ध में जैन दर्शन के नय और निक्षेप के सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है। अध्याय छः में भाषा की वाच्यता-सामर्थ्य तथा अवक्तव्य के स्वरूप पर विचार किया गया है। अध्याय सात भाषा और सत्य के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। इस अध्याय में इस प्रश्न पर भी विस्तार से चर्चा की गयी है कि किस प्रकार के भाषायी कथन सत्यता और असत्यता की कोटि में आते हैं और किस प्रकार के भाषायी कथन सत्यता और असत्यता की कोटि से परे हैं । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में जैन भाषा-दर्शन के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
इस कृति के प्रकाशन की इस वेला में सर्वप्रथम मैं भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय संस्कृति संस्थान के संस्थापक श्री प्रतापभाई एवं तत्कालीन निदेशक डा० वी० एम० कुलकर्णी का आभारी हूँ, जिन्होंने न केवल इन व्याख्यानों का आयोजन किया अपितु इन्हें ग्रन्थरूप में प्रकाशित करने का भी निर्णय लिया। इस सब के मूल में पं० दलसुखभाई मालवणिया की प्रेरणा ही मुख्य है, अतः इस अवसर पर उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापन करना मेरा प्रथम कर्तव्य है । प्रस्तुत ग्रन्थ में परामर्श और दार्शनिक पत्रों में छपे मेरे लेखों "सत्ता कितनी वाच्य, कितनी अवाच्य", "विभज्यवाद : आधुनिक भाषा-विश्लेषण का पूर्वरूप", "जैन दर्शन में ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्न" के अंश भी यथावत् रूप में या कुछ परिवर्तन के साथ लिये गये हैं इसकी अनुमति के लिए मैं दोनों पत्रों के सम्पादकों के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ।
इस अवसर पर स्वामी श्री योगीन्द्रानन्द जी के प्रति श्रद्धा एवं कृतज्ञता ज्ञापित करना भी मेरा पुनीत कर्तव्य है, जिन्होंने ग्रन्थ की भूमिका लिखने की महती कृपा की। यह पूज्य पिता श्री राजमल जी मातु श्री गंगावाई के आशीर्वाद एवं पत्नी कमला के सहयोग का परिणाम है कि यह ग्रन्थ निर्विघ्न रूप से पूर्ण हो सका। साथ ही पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान का नीरव वातावरण एवं समृद्ध ग्रन्थागार भी ग्रन्थ-प्रणयन के महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं, अतः उसके मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथजी एवं अन्य सभी कर्मचारी भी धन्यवाद के पात्र हैं।
. प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रेस कापी तैयार करने एवं प्रूफ-संशोधन में मुझे अपने सहयोगी एवं शोधछात्रों डा० भिखारीराम यादव, डा. अरुण प्रताप सिंह, डा. रविशंकर मिश्र आदि का भी सहयोग प्राप्त हुआ है, श्री महेश कुमार जी ने इसकी शब्द-सूची एवं विषयसूची तैयार की, अतः इन सबका आभारी हूँ। मैं उन ज्ञात-अज्ञात मित्रों का भी स्मरण करना चाहूँगा जिन्होंने मेरे व्याख्यानों के अवसर पर परिचर्चा में भाग लिया और अपने विचारों से लाभान्वित किया तथा अन्य किसी रूप में इस कृति के प्रणयन में सहयोग दिया।
सागरमल जैन
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