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________________ Perrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr सज्जन पुरुष भी लोगों के इष्ट प्रयोजन के लिए साधक रूप से शोभायमान होते ही हैं । जैसे रसायन के योग से लोहा सुवर्ण पने को प्राप्त होता है, उसी प्रकार निःसार भी मेरे वचन अर्हन्तदेव के चरित्र-चित्रण से सार पने को प्राप्त होंगे और सज्जन पुरुष उसे आदर से अपनावेंगे ॥११॥ सतामहो सा सहजेन शुद्धिः परोपकारे निरतैव बुद्धिः । उपद्रुतोऽप्येष तरू रसालं फलं श्रणत्यङ्गभृते त्रिकालम् ॥१२॥ अहो, सज्जनों की चित्त-शुद्धि पर आश्चय हैक उनकी बुद्धि दूसरों के उपकार करने में सहज स्वभाव से ही निरत रहती है । देखो-लोगों के द्वारा पत्थर आदि मार कर के उपद्रव को प्राप्त किया गया भी वृक्ष सदा ही उन्हें रसाल (सरस) फल प्रदान करता है ॥१२॥ यत्रानुरागार्थमुपैति चेतो हारिद्रवत्वं समवायहे तोः । सुधेव साधो रुचिराऽथ सूक्तिः सदैव यस्यान्यगुणाय युक्तिः ॥१३॥ जिस प्रकार हल्दी का द्रव-रस चूने के साथ संयुक्त होकर लालिमा को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार साधु-जन के सत्संग को पाकर मेरी उक्ति (कविता) भी रुचिर सूक्ति को प्राप्त हो लोगों के चित्त को हरण करके उनके हृदय में सदैव अनुराग उत्पन्न करेगी । क्योंकि सज्जनों का संयोग सदा दूसरों की भलाई के लिये ही होता है ॥१३॥ सुवृत्तभावेन समुल्लसन्तः मुक्ताफलत्वं प्रतिपादयन्तः । गुणं जनस्यानुभवन्ति सन्तस्तत्रादरत्वं प्रवहाम्यहं तत् ॥१४॥ जिस प्रकार उत्तम गोल आकार रूप से परिणत मौक्तिक (मोती) सूत्र का आश्रय पाकर अर्थात् सूत में पिरोये जाकर शोभा को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सजन पुरुष भी उत्तम सम्यक् चारित्र को धारण करके जीवन की निष्फलता को छोड़कर अर्थात् उसे सार्थक कर मनुष्यों के गुणों का अनुभव करते हैं । मैं ऐसे उन सन्त जनों में आदर के भाव को धारण करता हूँ ॥१४॥ साधोर्विनिर्माणविधौ विधातुश्च्युताः करादुत्करसंविधा तु । तयैव जाता उपकारिणोऽन्ये श्रीचन्दनाद्या जगतीति मन्ये ॥१५॥ साधुजनों को निर्माण करते हुए विधाता के हाथ से जो थोड़ी सी कणिका रूप रचना-सामग्री नीचे गिर गई, उसी के द्वारा ही श्री चन्दन आदिक अन्य उपकारी पदार्थ इस जगत् में उत्पन्न हुए हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ॥१५॥ भावार्थ - कवि ने यहां यह उत्प्रेक्षा की है कि सजनों को बनाने के पश्चात् विधाता को चन्दनादिक वृक्षों के निर्माण की वस्तुतः कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि चन्दनादि के सुगन्ध-प्रदानादि के कार्य करने को तो सज्जन पुरुष ही पर्याप्त थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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