________________
3रररररररररररररर विशेष- इस पद्य के पूर्वार्ध में प्रयुक्त पदों के द्वारा कवि ने अपने ज्ञान-गुरु श्री ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजी महाराज का स्मरण किया है ।
वीरोदयं यं विदधातुमेव न शक्तिमान् श्रीगणराजदेवः । दधाम्यहं तम्प्रति बालसत्त्वं वह निदानीं जलगेन्दुतत्त्वम् ॥७॥
श्री वीर भगवान् के जिस उदय रूप माहात्म्य के वर्णन करने के लिए श्री गणधर देव भी समर्थ नहीं है ऐसे वीरोदय के वर्णन करने के लिए मैं जल-प्रतिबिम्बित चन्द्र मण्डल को उठाने की इच्छा करने वाले बालक के समान बाल भाव (लड़कपन) को धारण कर रहा हूँ ॥७॥
शक्तोऽथवाऽहं भविताऽस्म्युपायाद्भवन्तु मे श्रीगुरवः सहायाः । पितुर्विलब्धांगुलिमूलतातिर्यथेष्ट देशं शिशुकोऽपि याति ॥८॥
अथवा मैं उपाय से (प्रयत्न करके) वीरोदय के कहने में समर्थ हो जाऊंगा श्री गुरुजन मेरे सहायक होवें । जैसे बालक अपने पिता की अंगुलियों के मूल भाग को पकड़ कर अभीष्ट स्थान को जाता है, उसी प्रकार मैं भी गुरुजनों के साहाय्य से वीर भगवान् के उदयरूप चरित्र को वर्णन करने में समर्थ हो जाऊंगा ॥८॥
मनोऽङ्गिनां यत्पदचिन्तनेन समेति यत्रामलतामनेनः । तदीयवृत्तैकसमर्थना वाक् समस्तु किन्नात्तसुवर्णभावा ॥९॥
जिन वीर भगवान् के चरणों का चिन्तवन करने से प्राणियों का मन पापों से रहित होकर निर्मलता को प्राप्त हो जाता है, तो फिर उन्हीं वीर भगवान् के एकमात्र चरित्र का चित्रण करने में समर्थ मेरी वाणी सुवर्ण भाव को क्यों नहीं प्राप्त होगी ? अर्थात् वीर भगवान के चरित्र का वर्णन करने के लिए मेरी वाणी भी उत्तम वर्ण पद-वाक्य रूप से अवश्य ही परिणत होगी ॥९॥
रजो यथा पुष्पसमाश्रयेण किलाऽऽविलं मद्वचनं च येन । वीरोदयोदारविचारचिह्न सतां गलालङ्करणाय किन्न ॥१०॥
जैसे मलिन भी रज (घूलि) पुष्पों के आश्रय से माला के साथ लोगों के गले का हार बनकर अलङ्कार के भाव को प्राप्त होती है, उसी प्रकार मलिन भी मेरे वचन वीरोदय के उदार विचारों से चिह्नित अर्थात् अङ्कित होकर सजनों के कण्ठ के अलङ्कार के लिए क्यों नहीं होंगे ? अर्थात् अवश्य हो होंगे ॥१०॥
लसन्ति सन्तोऽप्युपयोजनाय रसैः सुवर्णत्वमुपैत्यथायः । येनार्ह तो वृत्तविधानमापि निःसारमस्मद्वचनं तथापि ॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org