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________________ 5 साधुर्गुणग्राहक एष आस्तां श्लाघा ममारादसतस्तु तास्ताः । सर्वप्रियप्रायतयोदितस्य दोषं समुद्घाट्य वरं करस्य ॥ १६ ॥ साधु जन गुण- ग्राहक होते हैं, यह बात तो ठीक ही है । किन्तु सर्वजनों के लिए प्रिय रूप से कहे गये मेरे इस काव्य के दोषों का उद्घाटन (प्रकाशन) करके उसे निर्दोष उत्तम करने वाले असाधुजनों की ही मेरे हृदय में वार वार श्लाघा है । अर्थात् मेरे काव्य के दोषों का अन्वेषण करके जो असाधुजन उन्हें प्रकट कर उसे निर्दोष बनावेंगे, मैं उनका बहुत आभार मानते हुए उनकी प्रशंसा करता हूँ ||१६| संदकुराणां समुपायने नुः पुष्टा यथा गीरिह कामधेनुः । पयस्विनी सा खलशीलनेन तस्योपयोगोऽस्तु महाननेन ॥१७॥ जिस प्रकार इस लोक में उत्तम दूर्वांकुरों के चरने पर कामधेनु पुष्ट होती है और खल खिलाने से वह खूब दूध देती है, उसी प्रकार सज्जनों के उत्तम दया भाव से तो मेरी वाणी विकसित हो रही है और खलजनों के द्वारा दोष प्रदर्शन कर देने से अर्थात् निकाल देने से मेरी यह कविता रूप वाणी भी निर्दोष होकर सरस बन जायगी एवं खूब पुष्ट होगी और इस प्रकार दुर्जनों का सम्पर्क भी हमारे लिए परमोपयोगी होगा ॥१७॥ कर्णेजपं यत्कृतवानभूस्त्वं तदेतदप्यस्ति विधे ! पटुत्वम् । अनेन साधोः सफलो नृभाव ऋते तमः स्यात्क रवेः प्रभावः ॥ १८ ॥ हे विधाता ! तुमने जो दोष देखने वाले पिशुनों को उत्पन्न किया है सो यह भी तुम्हारी पटुता (चतुराई) ही है, क्योंकि इससे साधु का मनुष्यपना सफल होता है । अन्धकार न हो, तो सूर्य का प्रभाव कहां द्दष्टि गोचर होगा ॥१८॥ भावार्थ- जैसे यदि अन्धकार न हो, तो सूर्य के प्रभाव का महत्त्व कैसे प्रकट हो सकता है, उसी प्रकार यदि दुर्जन लोग न हों, तो सज्जनों की सज्जनता का प्रभाव भी कैसे जाना जा सकता है। अनेकधान्येषु विपत्तिकारी विलोक्यते निष्कपटस्य चारिः । छिद्रं निरूप्य स्थितिमादधाति स भाति आखोः पिशुनः सजातिः ॥१९॥ दुर्जन मनुष्य चूहे के समान होते हैं । जिस प्रकार मूषक (चूहा ) नाना जाति की धान्यों का विनाश करने वाला है, निष्क अर्थात् बहुमूल्य पटों (वस्त्रों) का अरि है, उन्हें काट डालता है और छिद्र (बिल) देखकर उसमें अपनी स्थिति को कायम रखता है । ठीक इसी प्रकार पिशुन पुरुष भी मूषक के सजातीय प्रतीत होते हैं क्योंकि पिशुन पुरुष भी नाना प्रकार से अन्य सर्व साधारण जनों के लिए विपत्ति-कारक है, निष्कपट जनों के शत्रु हैं और लोगों के छिद्रों (दोषों) को देखकर अपनी स्थिति को द्दढ़ बनाते हैं ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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