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________________ 65 (४) सिरिहर-विरचित-वडमाणचरिउ कवि श्रीधर ने अपने वर्धमान चरित की रचना अपभ्रंश भाषा में की है। यद्यपि भ. महावीर का कथानक एवं कल्याणक आदि का वर्णन प्रायः वही है, जो कि दि. परम्परा के अन्य आचार्यों ने लिखा है, तथापि कुछ स्थल ऐसे हैं, जिनमें कि दि. परम्परा से कुछ विशेषता दृष्टिगोचर होती है । जैसे (१) त्रिपृष्ठनारायण के भव में सिंह के मारने की घटना का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थकार ने किया है । सिंह के उपद्रव से पीड़ित प्रजा राजा से जाकर कहती है पीडइ पंचाणणु पउर सत्तु, बलवंतु भुवणे भो कम्मसत्तु । किं जम्मु जणवय-मारण क एण, सई हरि-मिसेण आयउरवेण ।। अह असुरु, अहव तुव पुव्ववेरि, दुद्धरु दुव्वारु वहं तु खेरि । तारिसु वियारु साह हो ण देव, दिट्ठ उ क यावि णर-णियर-सेव ॥ घत्ता-पिययम पुत्ताई गुण जुत्ताई परितजे वि जणु जाइ । जीविउ इच्छंतु लहु भज्जंतु, भय वसु को वि ण ठाइ ॥२१।। (पत्र २३ B) अर्थात्- हे महाराज, एक बलवान महान शत्रु सिंह हम लोगों को अत्यन्त सता रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सिंह के मिष से मारने के लिए यम ही आ गया है अथवा कोई असुर या कोई तुम्हारा पूर्व भव का वैरी देवदानव है । आप शीघ्र उससे हमारी रक्षा करें, अन्यथा अपने गुणी प्रियजनों और पुत्रादिकों को भी छोड़कर सब लोग अपने प्राणों की रक्षा के लिये यहां से जल्दी भाग जावेंगे । भय के कारण यहां कोई भी नहीं ठहरेगा । प्रजाजनों के उक्त वचन-सुनकर सिंह मारने को जाने के लिए ज्यों ही राजा उद्यत होता है, त्यों ही त्रिपृष्ठ उन्हें रोक कर स्वयं अपने जाने की बात कहते हुए उन्हें रोकते हैं । वे कहते हैं जइ मह संतेवि असि वरु लेवि, पसु-णिग्गह-क एण । उट्टि उ करि कोउ वइरि विलोउ, ता किं मइ तणएण ॥ (पत्र २४ B) अर्थात्-यदि मेरे होते संते भी आप खड्ग लेकर एक पशु का निग्रह करने के लिए जाते हैं, तो फिर मुझ पुत्र से क्या लाभ ? ऐसा कह कर त्रिपृष्ठ सिंह को मारने के लिए स्वयं जंगल में जाता है और विकराल सिंह को दहाड़ते हुए सामने आता देखकर उसके खुले हुए मुख में अपना वाम हस्त देकर दक्षिण हाथ से उसके मुख को फाड़ देता है और सिंह का काम तमाम कर देता है । इस घटना को कवि के शब्दों में पढ़िये - हरिणा करेण णियमिवि थिरे ण, णिद्दमणेण पुणु तक्खणेण । दिदु इयरु हत्थु संगरे समत्थु वयणंतराले पेसिवि विकराले ॥ पीडियउ सीहु लोलंत जीहु, लोयणजुवेण लोहियजुयेण । दावग्गिजाल अविरल विसाल, थुवमंत भाइ कोवेण णाइ । पवियारुओण हरि मारिऊणं तहो लोयहिं एहिं तणु णिसामएहिं ॥ (पत्र ३५ B) सिंह के मारने की इस घटना का वर्णन श्वे. ग्रन्थों में भी पाया जाता है। (२) भ. महावीर के जन्म होने के दिन से ही सिद्धार्थ के घर श्री लक्ष्मी दिन-दिन बढ़ने लगी । इस कारण दसवें दिन पिता ने उनका श्री वर्धमान नाम रखा । कवि कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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