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________________ 64 अर्थात हे तात, हे पिता, तुमने जो कहा, सो वह युक्त नहीं है। यह दारपरिग्रह (स्त्री-विवाह) चतुर्गति रूप संसार मार्ग का बढ़ाने वाला है और मोक्ष महान् पन्थ का रोकने वाला है। यह संसार रूप सागर दुस्तर दुर्गति रूप है, इसका कोई आदि अन्त नहीं है। कौन बुद्धिमान इसमें डूबना चाहेगा ? यह सर्वत्र अज्ञान से विस्तीर्ण है और विषम सन्धि-बन्धों से व्याप्त है। यह मानव देह कृमि कुल से भरा हुआ है नौ द्वारों से निरन्तर मल स्राव होता रहता है, सदा ही, मल-मूत्र प्रकट होता है, सदा ही यह वसा (चर्बी) और मांस से लिप्त रहता है, मुख से सदा ही लार बहती रहती है और सर्वांग रक्त-पुंज से प्रवाहित रहता है। सदा ही यह नाना प्रकार के मलों से कलुषित रहता है, सदा ही विष्ठा को धारण किये रहता है। इससे सदा ही दुर्गन्ध आती रहती है और सदा ही यह आंतों की आवली से बंधा हुआ है। सदा ही यह भूख प्यास से पीड़ित रहता है। ऐसे अनेक आपदामय शरीर का सेवन करने वालों को कभी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। हां, उनको दुःखों की प्राप्ति तो निश्चय से होती ही है पर से उत्पन्न होने वाले, मल-मूत्रादि को प्रवाहित करने वाले, क्षण-क्षण में सैकड़ों बाधाओं से व्याप्त और प्रारम्भ में मधुर दिखने वाले इस इन्द्रय सुख को कौन गुणी पुरुष सेवन करना चाहेगा ? संसार में परिभ्रमण करते हुए इसने अनन्त जन्म, जाति और वंशों को ग्रहण कर-कर के छोड़ा है। जगत् में कौनसा वंश सदा नित्य रहा है और कौन से कुल की सन्तान, माता, पिता और प्रिय जन नित्य बने रहे हैं। मनुष्य किसी किसके मनोरथों को पूरा कर सकता है। इसलिए इस दार परिग्रह को स्वीकार नहीं करना ही अच्छा है। पिता महावीर का यह उत्तर सुनकर और दीर्घ श्वाँस छोड़ कर चुप हो प्रत्युत्तर देने में अशक्य हो गये । (९) महावीर के वैराग्य उत्पन्न होने के अवसर पर रयधू ने बारह भावनाओं का बहुत सुन्दर एवं विस्तृत वर्णन किया है। (१०) रयधू ने दीक्षार्थ जाते हुए भगवान् के सात पग पैदल चलने का वर्णन इस प्रकार किया है । ता उडिवि सिंहासणहू जिणु चल्लिउ पय धरंतु घरहिं 1 षय सत्त महीयलि चलियत जाम, इंदे पणवेष्पिण देउ ताम I ससिपह सिवियहिं मंडिवि जिणिदु, आरोविवि उच्चायउ अदु ( पत्र ४६ A ) अर्थात् भगवान् सिंहासन से उठकर जैसे ही भूतल पर सात पग चले, त्यों ही इन्द्र ने शशिप्रभा पालकी में भगवान् को उठाकर बैठा दिया । - (११) इन्द्र जब गौतम को साथ लेकर भगवान् के समवशरण में आने लगे, तो उनके दोनों भाई भी अपे शिष्यों के साथ पीछे हो लिये तब उनका पिता शांडिल्य ब्राह्मण चिल्ला करके कहता है अरे, तुम लोग कहां जा रहे? क्या ज्योतिषी के ये वचन सत्य होंगे कि ये तीनों पुत्र जिन शासन की महती प्रभावना करेंगे। हाय, हाय, यह मायावी महावीर यहां कहां से आ गया ? I ता संडिल्ले विप्पे सिद्धठ, हा हा हा कहु काजु विणट्ठ ठ एयहिं जन्मण दिणि मईलक्खिठ णेमित्तिएण मज्झु णिउ अक्खहु ।। ए तिणि वि जिणसमय पहावण, पयड करे सहि सुहगइ दावण 1 तं अहिहाणु एहु पुणु जायत, कुवि मायावी इहु णिरु आयठ 11 ( पत्र ५० A) (१२) गौतम के दीक्षित होते ही भगवान् की दिव्यध्वनि प्रकट हुई। इस प्रसंग पर रयधू ने षट द्रव्य और सप्ततत्त्वों का तथा श्रावक और मुनिधर्म का विस्तृत वर्णन किया है । अन्त में रयधू ने भगवान् के निर्वाण कल्याण का वर्णन कर के गौतम के पूर्व भव एवं भद्रबाहु स्वामी का चरित्र भी लिखा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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