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अन्त में निराहार रहकर सिंह संन्यास के साथ मरकर दसवें स्वर्ग में उत्पन्न होता है और वहां से चय कर प्रियमित्र राजा का भव धारण करता है। पांचवें अध्याय में भ. महावीर के नन्द नामक इकतीसवें भव तक का वर्णन है । इस में भगवान् के उन्तीसवें भव वाले प्रियमित्र चक्रवर्ती की विभूति का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। जब चक्रवर्ती अपने वैभव का परित्याग करके मुनि बनकर मुनिधर्म का विधिवत् पालन करते हैं, तब कवि कहते हैं
सुखिना विधिना धर्मः कार्यः स्वसुख-वृद्धये । दुःखिना दुःख - घाताय सर्वथा वेतरैः जनैः ॥९०॥
अर्थात् सुखी जनों को अपने सुख की और भी वृद्धि के लिए, दुखी जनों को दुःख दूर करने के लिए, तथा सर्व साधारण जनों को दोनों ही उद्देश्यों से धर्म का पालन करना चाहिए ।
चक्रवर्ती द्वारा किये गये दुर्धर तपश्चरण का भी बहुत सुन्दर एवं विस्तृत वर्णन किया गया है ।
छठे अध्याय में भगवान् के उपान्त्य भव तक का वर्णन किया गया है। भगवान् का जीव इकतीसवें भव में दर्शन-विशुद्धि आदि षोडश कारण भावनाओं का चिन्तवन करके तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है। इस सन्दर्भ में षोडश भावनाओं का साथ ही सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न होने पर वहां के सुख, वैभव आदि का भी विस्तृत वर्णन किया गया है ।
महावीर के गर्भावतार का वर्णन है । गर्भ में आने के छह मास पूर्व ही सौधर्मेन्द्र भगवान् कुबेर को आज्ञा देता है
अथ सौधर्मकल्पेशो ज्ञात्वाऽच्युतसुरेशिनः । षण्मासावधिशेषायुः प्राहेति धनदं प्रति ॥४२॥ श्रीदात्र भारते क्षेत्रे सिद्धार्थनृपमन्दिरे । श्रीवर्धमानतीर्थेशश्चरमोऽवतरिष्यति ॥४३॥ अतो गत्वा विधेहि त्वं रत्नवृष्टिस्तदालये । शेषाश्चर्याणि पुण्याय स्वाल्पशर्माकराणि च ॥४४॥
अर्थात् अच्युतेन्द्र की छह मास आयु के शेष रह जाने की बात जानकर सौधर्मेन्द्र ने कुबेर को आदेश दिया कि भरत क्षेत्र में जाकर सिद्धार्थ राजा के भवन में रत्नवृष्टि आदि सभी आश्चार्यकारी अपने कर्त्तव्यों को करो, क्योंकि अन्तिम तीर्थङ्कर वहां जन्म लेने वाले हैं।
सातवें अध्याय में भ. के गर्भावतरण को जानकर
कुबेर को आज्ञा देकर इन्द्र पुनः माता की सेवा के लिए दिक्कुमारिका देवियों को भेजता है और वे जाकर त्रिशला देवी को भली-भांति सेवा करने में संलग्न हो जाती हैं। इसी समय त्रिशला देवी सोलह स्वप्नों को देखती हैं, तभी प्रभातकाल होने के पूर्व ही वन्दारु पाठक वादित्रों की ध्वनि के साथ जिन शब्दों का प्रयोग करते हुए माता को जगाते हैं, वह समग्र प्रकरण तो पढ़ने के योग्य ही है। माता जाग कर शीघ्र प्राभातिक क्रियाओं को करती हैं, पति के पास जाती है और स्वप्न कह कर फल पूछती है । त्रिज्ञानी पति के मुख से फल सुन कर परम हर्षित हो अपने मन्दिर में आती है। तभी स्वर्गादि से चतुर्निकाय के देव आकर गर्भ कल्याणक महोत्सव करते हैं और भगवान् के माता-पिता का अभिषेक कर एवं उन्हें दिव्य वस्त्राभरण देकर उनकी पूजा कर तथा गर्भस्थ भगवान् को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान को वापिस चले जाते हैं
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जिनेन्द्र- पतिरौ भत्तया ह्यारोप्य हरिविष्टिरे । अभिषिच्य कनत्काञ्चनकुम्भैः परमोत्सवैः ॥२०॥ प्रपूज्य दिव्यभूषासृग्वस्त्रैः शक्रा : सहामरैः । गर्भान्तस्थं जिनं स्मृत्या प्रणेमुस्त्रिपरीत्य ते ॥२१॥ इत्याद्यं गर्भकल्याणं कृत्वा संयोज्य सद् गुरोः । अम्बायाः परिचर्यायां दिक्कुमारी रनेकशः ॥ २२ ॥ आदिकल्पाधिपो देवैः समं शनैरुपायं च । परं पुण्यं सुचेष्टाभिर्नाकलोकं मुदा ययौ ॥ २३ ॥
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