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आठवें अध्याय में दिक्कुमारिका देवियों द्वारा भगवान् की माता की विविध प्रकारों से की गई सेवा-सुश्रूषा का और उनके द्वारा पूछे गये अनेकों शास्त्रीय प्रश्नों के उत्तरों का बहुत ही सुन्दर और विस्तृत वर्णन है । पाठकों की जानकारी के लिए चाहते हुए भी विस्तार के भय से यहां उसे नहीं दिया जा रहा है । इस विषय के जानने की इच्छा रखने वाले पाठकों से निवेदन है कि वे इस स्थल को संस्कृतज्ञ विद्वानों से अवश्य सुनने या पढ़ने का प्रयत्न करें ।
क्रमशः गर्भ-काल पूर्ण होने पर चैत सुदी १३ के दिन भगवान् का जन्म होता है, चारों जाति के देवों के आसन कम्पित होते हैं, अवधिज्ञान से भगवान् का जन्म हुआ जानकर वे सपरिवार आते हैं और शची प्रसूति गृह में जाकर माता की स्तुति करके माता को मायावी निद्रा से सुलाकर एवं मायामयी बालक को रखकर और भगवान् को लाकर इन्द्र को सौंप देती हैं । इस प्रसंग में ग्रन्थकार ने शची के प्रच्छन्न रहते हुए ही सर्व कार्य करने का वर्णन किया है। यथा
इत्यभिस्तुत्य गूढाङ्गी तां मायानिद्रयान्विताम् ।
कृत्वा मायामय बालं निधाय तत्पुरोद्धरम् ॥॥ जब इन्द्राणी भगवान् को प्रसूति-गृह से लाती है, तो दिक्कुमारियां अष्ट मंगल द्रव्यों को धारण करके आगे-आगे चलती हैं । इन्द्र भगवान् को देखते ही भक्ति से गद्-गद होकर स्तुति कर अपने हाथों में लेता है और ऐरावत पर बैठकर सब देवों के साथ सुमेरु पर्वत पर पहुँचता है । इस स्थल पर सकलकीर्ति ने देवी-देवताओं के आनन्दोद्रेक का और सुमेरु पर्वत का बड़ा विस्तृत वर्णन किया है।
नवें अध्याय में भगवान् के अभिषेक का वर्णन है । यहां बताया गया है कि भगवान् के अभिषेक-समय इन्द्र के आदेश से सर्व दिग्पाल अपनी-अपनी दिशा में बैठते हैं । पुनः क्षीर सागर से जल भरकर लाये हुए १००८ कलशों को इन्द्र अपनी तत्काल ही विक्रियानिर्मित १००८ भुजाओं में धारण करके भगवान् के शिर पर जलधारा छोड़ता हैं । पुनः शेष देव भी भगवान् के मस्तक पर जलधारा करते हैं । इस स्थल पर सकलकीर्ति ने गन्ध, चन्दन एवं अन्य सुगन्धित द्रव्यों से युक्त जल भरे कलशों से भगवान् का अभिषेक कराया है । यथा
पुनः श्रीतीर्थकर्तारमभ्यसिञ्चच्छताध्वरः । गन्धाम्बुचन्दनायैश्च विभूत्याऽमा महोत्सवैः ॥२९॥ सुगन्धिद्रव्यसन्मिश्रसुगन्धजलपूरितैः ।।
गन्धोदकमहाकुम्भैर्मणिकाञ्चननिर्मितैः ॥३०॥ यहां यह बात फिर भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने दही-घी आदि से भगवान् का अभिषेक नहीं कराया है ।
यहां पर सकलकीर्ति ने भगवान् के इस अभिषेक की जलधारा का कई श्लोकों में माहात्म्य वर्णन किया है और भावना की है कि वह पवित्र जलधारा हमारे मन को भी दुष्कर्मों के मेल से छुड़ाकर पवित्र करे । पुनः सर्व देवों ने जगत् की शान्ति के लिए शान्ति पाठ पढ़ा । पुनः इन्द्राणी ने भगवान् को वस्त्राभूषण पहिनाये । कवि ने इन वस्त्र
और सभी आभूषणों का काव्यमय विस्तृत आलङ्कारिक वर्णन किया है । तत्पश्चात इन्द्र ने भगवान् की स्तुति की, जिसका वर्णन कवि ने पूरे २० श्लोकों में किया है । पुनः भगवान् का नाम संस्कार कर वीर और श्री वर्धमान नाम रखकर जय-जयकार करते हुए सर्व देव-इन्द्र के साथ कुण्डनपुर आये और भगवान् माता-पिता को सौंप कर तथा उनकी स्तुति कर और आनन्द नाटक करके अपने स्थान को चले गये । कवि ने इस आनन्द नाटक का बड़ा विस्तृत एवं चमत्कारी वर्णन किया है।
दशवें अध्याय में भगवान् की बाल-क्रीड़ा का सुन्दर वर्णन किया है । जब महावीर कुमारावस्था को प्राप्त हुए, तो उनके जन्म-जात मति, श्रुत और अवधिज्ञान सहज में ही उत्कर्ष को प्राप्त हो गये । उस समय उन्हें सभी विद्याएं
और कलाएं स्वयं ही प्राप्त हो गईं, क्योंकि तीर्थङ्कर का कोई गुरु या अध्यापन कराने वाला नहीं होता है । सकलकीर्ति लिखते हैं
तेन विश्वपरिज्ञानकला-विद्यादयोऽखिलाः । गुणा धर्मा विचाराद्याश्चागुः परिणतिं स्वयम् ॥१४॥
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