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भट्टारक श्री सकलकीर्ति ने संस्कृत भाषा में 'वीर-वर्धमान चरित्र' की रचना की है । ये विक्रम की १५वीं शताब्दी के आचार्य हैं । इनका समय वि. सं. १४४३ से १४९९ तक रहा है । इन्होंने संस्कृत में २८ और हिन्दी में ७ ग्रन्थों की रचना की है। यहां उनमें से उनके 'वर्धमान चरित्र का कुछ परिचय दिया जाता है।
इस चरित्र में कुल १९ अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में सर्व तीर्थंकरों को पृथक-पृथक श्लोकों में नमस्कार कर, त्रिकाल-वर्ती तीर्थकरों और विदेहस्थ तीर्थंकरों को भी नमस्कार कर गौतम गणधर से लगाकर सभी अंग-पूर्वधारियों को उनके नामोल्लेख-पूर्वक नमस्कार किया है । अन्त में कुन्दकुन्दादि मुनीश्वरों को और सरस्वती देवी को नमस्कार कर वक्ता और श्रोता के लक्षण बतलाकर योग्य श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए सत्कथा सुनने की प्रेरणा की है ।
दूसरे अध्याय में भगवान् महावीर के पूर्व भवों में पुरुरवा भील से लेकर विश्वनन्दी तक के भवों का वर्णन है। इस सर्ग में देवों का जन्म होने पर वे क्या-क्या विचार और कार्य करते हैं, यह विस्तार के साथ बताया गया है। मरीचि के जीव ने चौदहवें भव के बाद मिथ्यात्व कर्म के परिपाक से जिन असंख्य योनियों में परिभ्रमण किया उन्हें लक्ष्य में रखकर ग्रन्थकार अपना दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं
वरं हुताशने पातो वर हालाहलाशनम् ।।
अब्धौ वा मज्जनं श्रेष्ठं मिथ्यात्वान्नच जीवितम् ॥३२॥ अर्थात-अग्नि में गिरना अच्छा है. हालाहल विष का खाना उत्तम है और समुद्र में डूब मरना श्रेष्ठ है, परन्तु मिथ्यात्व के साथ जीवित रहना अच्छा नहीं है । इससे आगे अनेक दुःखदायी प्राणियों के संगम से भी भयानक दुःखदायी मिथ्यात्व को बतलाये हुए कहते हैं
एकतः सकलं पाप मिथ्यात्वमेकतस्तयोः ।
वदन्त्यत्रान्तरं दक्षा मेरु-सर्षपयोरिव ॥३४॥ अर्थात् - एक ओर सर्व पापों को रखा जाय और दूसरी ओर अकेले मिथ्यात्व को रखा जाय, तो दक्ष पुरुष इन दोनों का अन्तर मेरु पर्वत और सरसों के दाने के समान बतलाते हैं । भावार्थ- मिथ्यात्व का पाप मेरु-तुल्य महान् है ।
तीसरे अध्याय में भ. महावीर के बीसवें भव तक का वर्णन है, जहां पर कि त्रिपृष्ट नारायण का जीव सातवें नरक का नारकी बनकर महान् दुःखों को सहता है । इस सर्ग में नरकों के दुःखों का विस्तृत वर्णन किया गया है। मध्यवती भवों का वर्णन भी कितनी ही विशेषताओं को लिए हुए है।
चौथे अध्याय में भ. महावीर के हरिषेण वाले सताईसवें भव तक का वर्णन है। इसमें तेईसवें भव वाले मृगभक्षण करते हुए सिंह को सम्बोधन करके चारण मुनियों के द्वारा दिया गया उपदेश बहुत ही उद्-बोधक है । उनके उपदेश को सुनते हुए सिंह को जाति-स्मरण हो जाता है और वह आंखो से अश्रुधारा बहाता हुआ मुनिराजों की ओर देखता है, उसका ग्रन्थकार ने बड़ा ही सजीव वर्णन किया है । यथा
गलद्वाष्पजलोऽतीवशान्तचित्तो भगवत्तराम् । अश्रुपातं शुचा कुर्वन् पश्चात्तापमयेन च ॥२४॥ पुनर्मुनिहरि वीक्ष्य स्वस्मिन् बद्धनिरीक्षणम् ।
शान्तान्तरंगमभ्येत्य कृपयैवमभाषत ॥२५॥ पुनः मुनि के दिये गये धर्मोपदेश को सिंह हृदय में धारण करता है और मिथ्यात्व को महान् अनर्थ का करने वाला जानकर उसका परित्याग करता है । कवि कहते हैं
मिथ्यात्वेन समं पापं न भूतं न भविष्यति । न विद्यते त्रिलोकेऽपि विश्वानर्थनिबन्धनम् ॥४४॥
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