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________________ 54 (१) जन्म कल्याणक के लिए आता हुआ सौधर्मेन्द्र माता के प्रसूति-गृह में जाकर उन्हें मायामयी नींद से सुलाकर और मायामय शिशु को रख कर भगवान् को बाहिर लाता है और इन्द्राणी को सौंपता है : मायार्भकं प्रथमकल्पपतिर्विधाय मातु पुरोऽथ जननाभिषवक्रियायै । : बालं जहार जिनमात्मरुचा स्फुरन्त कार्यान्तरान्ननु बुधोऽपि करोत्यकार्यम् ॥७२॥ शच्या धृतं करयुगे नतमब्जभासा निन्ये सुरैरनुगतो नभसा सुरेन्द्रः । स्कन्धे निधाय शरदभ्रसमानमूतेंरैरावतस्य मदगन्धहतालिपक्तेः ।।७३॥ (सर्ग १७, पत्र ९० B) (२) जन्माभिषेक के समय सुमेरु के कम्पित होने का उल्लेख भी कवि ने किया है। यथा तस्मिस्तदा क्षुवति कल्पितशैलराजे घोणाप्रविष्टसलिलात्पृथुकेऽप्यजस्रम । इन्द्रा जरतृणभिवैकपदे निपेतुवीर्यनिसर्गजमनन्तमहो जिनानाम् ॥२॥ (सर्ग १७, पत्र ९० B) दि. परम्परा में पद्मचरित के सिवाय अन्यत्र कहीं सुमेरु के कम्पित होने का यह दूसरा उल्लेख है जो कि विमलसूरि के प्राकृत पउमचरिउ का अनुकरण प्रतीत होता है। पीछे के अपभ्रंश चरित-रचयिताओं में से भी कुछ ने इनका ही अनुसरण किया है। ग्रन्थ के अन्त में उपसंहार करते हुए असग कवि कहते हैं कृतं महावीरचरित्रमेतन्मया परस्य प्रतिबोधनाय । सप्ताधिकत्रिंशभवप्रबन्धं पुरुरवाद्यंन्तिमवीरनाथम् ॥१०२॥ अर्थात् पुरुरवा भील के आदि भव से लेकर वीरनाथ के अन्तिम भव तक के सैंतीस भवों का वर्णन करने वाला यह महावीर चरित्र मैंने अपने और पर के प्रतिबोध के लिए बनाया । इस उल्लेख में महावीर के सैंतीस भवों के उल्लेख वाली बात विचारणीय है । कारण कि स्वयं असगने उन्हीं तेतीस ही भवों का वर्णन किया है, जिन्हें कि उत्तर पुराणकार आदि अन्य दि. आचार्यों ने भी लिखा है। सैंतीस भव तो होते ही नहीं हैं । श्वे. मान्यता के अनुसार २७ भव होते हैं, परन्तु जब असग ने ३३ भव गिनाये हैं, तो २७ भवों की संभावना ही नहीं उठती है। उपलब्ध पाठ को कुछ परिवर्तन करके 'सप्ताधिक-विंशभवप्रबन्ध' मानकर २७ भवों की कल्पना की जाय, तो उनके कथन में पूर्वापर-विरोध आता है । ऐसा प्रतीत होता है कि असगने भवों को एकएक करके गिना नहीं है और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्रचलित मान्यता को ध्यान में रख कर वैसा उल्लेख कर दिया है। जो कुछ भी हो, पर यह बात विचारणीय अवश्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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