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अन्तिम पुष्पिका के 'महापुराणोपनिषदि' पद से यह स्पष्ट है कि सं. ९१० में चरित की रचना महापुराण के उत्तर खण्ड रूप उत्तर पुराण के आधार पर की गई है। उत्तर पुराण में भ. महावीर के चरित का चित्रण पुरुरवा भील के भव से लेकर अन्तिम भव तक एक ही सांस (सर्ग) में किया गया है । वह वर्णन शुद्ध चरित रूप ही है । पर अग ने अपना वर्णन एक महाकाव्य के रूप में किया है। यही कारण है कि इसमें चरित चित्रण की अपेक्षा घटना चक्रों के वर्णन का आधिक्य दृष्टिगोचर होता है। इसका आलोड़न करने पर यह भी प्रतीत होता है कि इस पर आ. वीरनन्दि चन्द्रप्रभचरित का प्रभाव है ।
असग ने महावीर के पूर्व भवों का वर्णन पुरुरवा भीत से प्रारम्भ न करके इकतीसवें नन्दन कुमार के भव से प्रारम्भ किया है ।
नन्दन कुमार के पिता जगत् से विरक्त होकर जिन दीक्षा ग्रहण करने के लिये उद्यत होते हैं और पुत्र का राज्याभिषेक कर गृह त्याग की बात उससे कहते हैं, तब वह कहता है कि जिस कारण से आप संसार को बुरा जानकर उसका त्याग कर रहे हैं, उसे मैं भी नहीं लेना चाहता और आपके साथ ही संयम धारण करुंगा । इस स्थल पर पिता-पुत्र की बात-चीत का कवि ने बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है । अन्त में पिता के यह कहने पर कि तू अपने उत्तराधिकारी को जन्म देकर और उसे राज्य भार सौंप कर दीक्षा ले लेना। इस समय तेरे भी मेरे साथ दीक्षा लेने पर कुलस्थिति नहीं रहेगी और प्रजा निराश्रय हो जायगी- वह राज्य भार स्वीकार करता है । पुनः आचार्य के पास जाकर धर्म का स्वरूप सुनता है और गृहस्थ धर्म स्वीकार राज-पाट संभालता है ।
किसी समय नगर के उद्यान में एक अवधि ज्ञानी साधु के आने का समाचार सुनकर राजा नन्द पुर वासियों के साथ दर्शनार्थ जाता है और धर्म का उपदेश सुनकर उनसे अपने पूर्व भव पूछता है। मुनिराज कहते हैं कि हे राजेन्द्र, तू आज से पूर्व नवें भव में एक अति भयानक सिंह था । एक दिन किसी जंगली हाथी को मार कर जब तू पर्वत की गुफा में पड़ा हुआ था, तो आकाश मार्ग से विहार करते दो चारण मुनि उधर से निकले। उन्होंने तुझे प्रबोधित करने के लिए मधुर ध्वनि से पाठ करना प्रारम्भ किया। जिसे सुन कर तू अपनी भयानक क्रूरता छोड़कर शान्त हो उनके समीप जा बैठा । तुझे लक्ष्य करके उन्होंने धर्म का तात्त्विक उपदेश देकर पुरुरवा भील के भव से लेकर सिंह तक के भवों का वर्णन किया, जिसे सुनकर तुझे जाति-स्मरण हो गया और अपने पूर्व भवों की भूलों पर आंसू बहाता हुआ मुनि-युगल के चरण-कमलों को एकाग्र हो देखने लगा । उन्होंने तुझे निकट भव्य जानकर धर्म का उपदेश दे सम्यक्त्व और श्रावक व्रतों को ग्रहण कराया । शेष कथानक उत्तर पुराण के समान ही है ।
यहां यह बात उल्लेखनीय है कि असग कवि ने सिंह के पूर्व भवों का वर्णन सर्ग ३ से ११वें तक पूरे ९ सर्ग में किया है । उसमें भी केवल त्रिपृष्ठ नारायण के भव का वर्णन ५ सर्गों में किया गया है। पांचवें सर्ग में त्रिपृष्ठ नारायण का जन्म, छठे में प्रतिनारायण की सभा का क्षोभ, सातवें में युद्ध के लिए दोनों की सेनाओं का सन्निवेश, आठवें में दोनों का दिव्यास्त्रों से युद्ध, और नवें में त्रिपृष्ठ की विजय, अर्धचक्रित्व का वर्ण और मर कर नरक जाने तक की घटनाओं का वर्णन है। असग ने समग्र चरित के १०० पत्रों में से केवल त्रिपृष्ठ के वर्णन में ४० पत्र लिखे हैं। त्रिपृष्ठ के भव से लेकर तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध करने वाले नन्द के भव तक का वर्णन आगे के ५ सर्गों में किया गया है, इसमें भी पन्द्रहवें सर्ग में धर्म का विस्तृत वर्णन ग्रन्थ के १३ पत्रों में किया गया जो कि तत्त्वार्थ सूत्र के अध्याय ६ से लेकर १० तक के सूत्रों पर आधारित है।
सत्तरहवें सर्ग में भ. महावीर के गर्भ, जन्म, दीक्षा कल्याणक का वर्णन कर उनके केवल ज्ञान- उत्पत्ति तक का वर्णन है । दीक्षार्थ उठते हुए महावीर के सांत पग पैदल चलने का उल्लेख भी कवि ने किया है।
अठारहवें सर्ग में समवशरण का विस्तृत वर्णन कर उनके धर्मोपदेश, विहार संघ-संख्या और निर्वाण का वर्णन कर ग्रन्थ समाप्त होता है ।
असग कवि ने भ. महावीर के पांचो ही कल्याणों का वर्णन यद्यपि बहुत ही संक्षेप में दिगम्बर- परम्परा के अनुसार ही किया है, तथापि दो-एक घटनाओं के वर्णन पर श्वेताम्बर - परम्परा का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । यथा
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