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पशु बलि की कुप्रथा भी अनेक देशों से उठ गई, मूढ़ताओं एवं पाखण्डों से लोगों को छुटकारा मिला और लोग सत्य धर्म के अनुयायी बने ।
जब भ. महावीर के जीवन के केवल दो दिन शेष रह गये, तब उन्होंने विहार रूप काय-योग की और धर्मोपदेशरूप वचनयोग की क्रियाओं का निरोधकर' पावापुर के बाहिर अवस्थित सरोवर के मध्यवर्ती उच्च स्थान पर पहुँच कर प्रतिमा-योग धारण कर लिया और कार्त्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम और अमावस्या के प्रभात काल में निर्वाण प्राप्त किया ।
किन्तु श्वे. मान्यता है कि भ. महावीर पावा-नगरी के राजा हस्तिपाल के रज्जुग सभा भवन में अमावस्या की सारी रात धर्म देशना करते हुए मोक्ष पधारे ।
कुछ अप्रकाशित ग्रन्थों का परिचय
यहां पर भ. महावीर का चरित्र-चित्रण करने वाले कुछ अप्रकाशित संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा में रचे गये ग्रन्थों का परिचय देकर तद्-गत विशेषताओं का उल्लेख किया जाता है, जिससे कि पाठक उनसे परिचित हो सकें ।
( १ )
असग - कवि - विरचित - श्री वर्धमानचरित
जहां तक मेरा अनुसन्धान है, भगवद्-गुणभद्राचार्य के पश्चात् भ. महावीर का चरित-चित्रण करने वालों में असगकवि का प्रथम स्थान है । इन्होंने श्री वर्धमान चरित के अन्त में अपना जो बहुत संक्षिप्त परिचय दिया है, उससे ज्ञात होता है कि इसकी रचना सं. ९१० में भावकीर्त्ति मुनि-नायक के पादमूल में बैठकर चौड देश की वि..ला नगरी में हुई है। ग्रन्थ का परिमाण लगभग तीन हजार श्लोक प्रमाण हैं । प्रशस्ति के अन्तिम श्लोक के अन्तिम चरण से यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने आठ ग्रन्थों की रचना की है । दुःख है कि आज उनके शेष सात ग्रन्थों का कोई पता नहीं है। उनकी ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति इस प्रकार है
वर्धमान चरित्रं यः प्रव्याख्याति श्रृणोति च । तस्येह परलोकस्य सौख्यं संजायते तराम् ॥१॥
संवत्सरे दशनवोत्तर - वर्षयुक्ते भावादिकीर्तिमुनिनायक - पादमूले । मौद्गल्यपर्वतनिवासवनस्थसम्पत्सछ्राविकाप्रजनिते सति वा ममत्वे ॥२॥
विद्या मया प्रपठितेत्यसगाह्वकेन श्री नाथराज्यमखिलं जनतोपकारि ।
प्राप्यैव चौडविषये वि.....लानगयौ ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ॥३॥
इत्यसगकृते वर्धमानचरिते महापुराणोपनिषदि भगवन्निर्वाण गमनो नामाष्टादशः सर्ग समाप्त ॥१८॥
१. षष्ठेन निष्ठितकृतिर्जिनवर्धमानः' । टीका-षष्ठेन दिनद्वयेन परिसंख्याते आयुषि सति निष्ठितकृतिः निष्ठिता विनष्टा कृति : द्रव्य मनोवाक्कायक्रिया यस्यासौ निष्ठितकृति, जिनवर्धमानः ।
(पूज्यपादकृत सं. निर्वाण-भक्ति श्लो. २६)
२. पावापुरस्य बहिरुन्नतभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्धमानजिनदेव इतिप्रतीतो निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा ॥
३. देखो - पं. कल्याणविजयगणि-लिखित 'श्रमण भगवान् महावीर'
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(सं. निर्वाण भक्ति, श्लो. २४)
(पृ. २०६ - २०७ )
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