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________________ 51 जो जिस किसी भी (वस्त्र - वल्कल) आदि वस्तु से अपना शरीर ढक लेता है, समय पर जो भी रुखा सुखा मिल जाय, उसी से भूख मिटा लेता है और जहां कहां भी सो जाता है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ॥२॥ जो जन समुदाय को सर्प-सा समझकर उसके निकट जाने से डरता है, स्वादिष्ट भोजन जनित तृप्ति को नरक सा मानकर उससे दूर रहता है, और स्त्रियों को मुर्दों के समान समझकर उनसे विरत रहता है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ॥३॥ जो सम्मान प्राप्त होने पर हर्षित नहीं होता, अपमानित होने पर कुपित नहीं होता, और जिसने सर्व प्राणियों को अभयदान दिया है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ॥४॥ जो सर्व प्रकार के परिग्रह से विमुक्त मुनि-स्वरूप है, आकाश के समान निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरण करता हुआ शान्त भाव से रहता है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ॥५॥ जिसका जीवन धर्म के लिए है और धर्म सेवन भी भगवद् भक्ति के लिए है, जिसके दिन और रात धर्म पालन में ही व्यतीत होते हैं, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ॥६॥ जो कामनाओं से रहित है, सर्व प्रकार के आरम्भ से रहित है, नमस्कार और स्तुति से दूर रहता है, तथा सभी जाति के बन्धनों से निर्मुक्त है, उसे देवता लोग ब्राह्मण कहते हैं ॥७॥ जो पवित्र आचार का पालन करता है, सर्व प्रकार से शुद्ध सात्त्विक भोजन को करता है, गुरुजनों का प्यारा है, नित्य व्रत का पालन करता है और सत्य-परायण है, वही निश्चय से ब्राह्मण कहलाता है ॥८॥ जिस पुरुष मे सत्य निवास करता है, दान देने की प्रवृत्ति है, द्रोह भाव का अभाव है, क्रूरता नहीं है, तथा लज्जा, दयालुता और तप से गुण विद्यमान हैं, वही ब्राह्मण माना गया है ॥९॥ हे ब्राह्मण, जिसके सभी कार्य आशाओं के बन्धनों से रहित हैं, जिसने त्याग की आग में अपने सभी बाहिरी और भीतरी परिग्रह और विकार होम दिये हैं, वही सच्चा त्यागी और बुद्धिमान् ब्राह्मण है ॥१०॥ महाभारत के उपर्युक्त उल्लेख से भी यही सिद्ध होता है कि उक्त गुण सम्पन्न ब्राह्मण को एक आदर्श पुरुष के रूप में माना जाता था । किन्तु जब उनमें आचरण-हीनता ने प्रवेश कर लिया, तब भ. महावीर और भ. बुद्ध को उनके विरुद्ध अपना धार्मिक अभियान प्रारम्भ करना पड़ा । भ. महावीर का निर्वाण इस प्रकार भ. महावीर अहिंसा मूलक परम धर्म का उपदेश सर्व संघ सहित सारे भारत वर्ष में विहार करते हुए अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक देते रहे। उनके लगभग तीस वर्ष के इतने दीर्थ काल तक के उपदेशों का यह प्रभाव हुआ कि हिंसा प्रधान यज्ञ यगादि का होना सदा के लिए बन्ध हो गया । देवी-देवताओं के नाम पर होने वाली येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः । अहेरिव गणाद् भीतः सौहित्यान्नरकादिव । न क्रुध्येन प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्वच यः । विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत् स्थितम् । जीवितं यस्य धर्मार्थं धर्मो हर्यर्थमेव च । निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् । शौचाचारस्थित सम्यग्विघसाशी गुरुप्रियः । सत्यं दानमथाद्रोह: आनृशंस्यं त्रपा घृणा । यस्य सर्वे समारम्मा निराशीर्बन्धना द्विज । Jain Education International यत्र क्कचन शायी च तं देवा ब्राह्मण विदुः ॥२॥ कुपणादिव च स्त्रीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥३॥ सर्वभूतेष्यभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥४॥ अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥५॥ अहोरात्राश्च पुण्यार्थ तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥६॥ निमुक्तं बन्धनैः सर्वैस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥७॥ ( महाभारत, शान्तिपर्व, अ. २४५, श्लो. १०-१४, २२ - २४) नित्यव्रती सत्परः स वै ब्राह्मण उच्यते ॥८॥ तपश्च दृश्यते यत्र स ब्राह्मण इति स्मृतः ॥ ९ ॥ त्यागे यस्य हुतं सर्व स त्यागी च स बुद्धिमान् ॥१०॥ ( महाभारत शान्तिपर्व, अ. १८१, श्लो. ३, ४, ११) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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