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________________ 50 (३) महावीर की ब्राह्मण-स्वरूप प्रतिपादन करने वाली केवल १५ ही गाथाएं उत्तराध्ययन में मिलती हैं, किन्तु धम्मपद में वैसी गाथाएं ४१ हैं । उनमें से केवल ३७ हो ऊपर दी गई हैं । गाथाओं की यह अधिकता दो बातें सिद्ध करती है एक-उस समय ब्राह्मणवाद बहुत जोर पर था । दो-ब्राह्मण अपने पवित्र कर्तव्य से गिरकर हीनाचरणी हो गये थे। (४) उक्त चातुर्यामवली गाथाएं दोनों ही ग्रन्थों में प्रायः शब्द और अर्थ की दृष्टि से तो समान हैं ही. किन्तु अन्य गाथाएं भी दोनों की बहुत कुछ शब्द और अर्थ की दृष्टि से समानता रखती हैं । यथा१. धम्मपद - बाहित-पापो ति ब्राह्मणो समचरिया समणोत्ति बुच्चति । पव्वाजयमत्तनो मलं तस्मा पव्वजितो त्ति बुच्चति ॥५॥ उत्तराध्ययन- समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण मुणी होइ तवेण होइ तापसो ॥१२॥ २. धम्मपद- वारि पोक्खर-पत्ते व आरग्गोरिव सासपो । यो न लिंपति कम्मेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१५॥ उत्तराध्ययन- जहा पोम्मं जले. जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलितं कम्मेहिं तं वयं बूम माहणं ॥८॥ ३. धम्मपद - छत्वा नन्धि वातं च सन्दानं सहनुक्कर्म । उक्खित्त पलिधं बुद्ध तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१२॥ उत्तराध्ययन- जहित्ता पुव्वसंजोगं नाइसंगे य बधवे । जो न सज्जइ भोगेसु तं वयं बूम माहण ॥१०॥ ४. धम्मपद - असंसटुं गहडेहि अणागारेहि चभूयं । अनोकसारि अप्पिच्छं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१८॥ उत्तराध्ययन- अलोलुयं मुहाजीविं अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥९॥ ५. ब्राह्मणों के हीनाचारी जीवन को देखकर बुद्ध और महावीर ने अपनी उक्त देशनाएं की यह बात दोनों के उक्त प्रवचनों से स्पष्ट ज्ञात होती है । फिर भी बुद्ध के ब्राह्मण-सन्दर्भ में किये गये प्रवचनों से एक बात भली-भांति परिलक्षित होती है कि वे ब्राह्मण को एक ब्रह्म-निष्ठ, शुद्धात्म-स्वरूप को प्राप्त और राग-द्वेष-भयातीत वीतराग, सर्वज्ञ और पुण्य-पाप-द्वयातीत नीरज, शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध परमात्मा के आदर्श रूप को प्राप्त आत्मा को ही ब्राह्मण कहना चाहते हैं, जैसा कि 'ब्रह्मणि शुद्धात्म-स्वरूपे निरतो ब्राह्मणः' इस निरुक्ति से अर्थ प्रकट होता है । (देखो ऊपर दी गई धम्मपद की २१, २६, २८, ३१, ३३ आदि नम्बर वाली गाथाएं ।) महावीर ब्राह्मणवाद के विरोध में बुद्ध के साथ रहते हुए भी अहिंसावाद में उनसे अनेक कदम आगे बढ जाते हैं । यद्यपि बुद्ध ने स-स्थावर के घात का निषेध ब्राह्मण के लिए आवश्यक बताया है, तथापि स्वयं मरे हुए पशु के मांस खाने को अहिंसक बतला कर अहिंसा के आदर्श से वे स्वयं गिर गये हैं, और उनकी उस जरा-सी छूट देने का यह फल हुआ है कि आज सभी बौद्ध धर्मानुयायी मांसभोजी दृष्टिगोचर हो रहे हैं । किन्तु महावीर की अहिंसाव्याख्या इतनी विशद और करुणामय थी कि आज एक भी अपने को जैन या महावीर का अनुयायी कहने वाले व्यक्ति प्राणि-घातक और मांस-भोजी नहीं मिलेगा। महाभारत के शान्ति पर्व में ब्राह्मण का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है "जो सदा अपने सर्वव्यापी स्वरूप से स्थित होने के कारण अकेले ही सम्पूर्ण आकाश में परिपूर्ण सा हो रहा है और जो असंग होने के कारण लोगों से भरे हुए स्थान को भी सूना समझता है, उसे ही देव-गण ब्राह्मण मानते हैं ॥१॥ येन पूर्णमिवाऽऽकाशं भवत्येकेन सर्वदा । शून्यं येन जनाकीणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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