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________________ 4 , जो इस संसार में बड़ी या छोटी, सूक्ष्म या स्थूल, और शुभ या अशुभ किसी भी प्रकार की पर-वस्तु को बिना दिये नहीं लेता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२३॥ जिसे इस लोक या परलोक-सम्बन्धी किसी भी प्रकार की लालसा नहीं रही है, ऐसे वासना-रहित विरक्त पुरुष को ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥२४॥ जिसके पास रहने को घर-मकान आदि किसी भी प्रकार का आलय नहीं है, जो स्त्रियों की कथा भी नहीं कहता है, जिसे सन्तोष रूप अमृत प्राप्त है और जिसे किसी भी प्रकार की इच्छा तृष्णा उत्पन्न नहीं होती है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२५॥ जो पुण्य और पाप इन दोनों के संग से रहित है, शोक-रहित कर्म-रज से रहित और शुद्ध है, मैं ऐसे ही पुरुष को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२६॥ जो चन्द्रमा के समान विमल है, शुद्ध है, सुप्रसन्न है और कलंक-रहित है, जिसकी सांसारिक तृष्णाएं बिलकुल नष्ट हो गई हैं, मैं ऐसे ही पुरुष को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२७॥ मोह से रहित होकर जिसने तृष्णा-रूपी कीचड़ से लथपथ, दुर्गम संसार समुद्र को तिर कर पार कर लिया है, जो आत्म-ध्यानी है, पाप-रहित है, कृत-कृत्य है, जो कर्मों के उपादान (ग्रहण) से रहित होकर निवृत्त (मुक्त) हो चुका है, मैं ऐसे ही मनुष्य को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२८॥ जो काम-भोगों को परित्याग करके अनगार बनकर परिबजित हो गया है ऐसे काम-विजयी मनुष्य को ही मैं ब्राह्मण कहताहूँ ॥२९॥ जो तृष्णा का परिहार करके गृह-रहित होकर परिव्राजक बन गया है, ऐसे तृष्णा-विजयी पुरुष को ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३०॥ जो मानवीय बन्धनों का त्याग कर और दिव्य (देव-सम्बन्धी) भोगों के संयोग को भी त्याग कर सर्व प्रकार के सभी सांसारिक बन्धनों से विमुक्त हो गया है, मैं उसी पुरुष को ब्राह्मण कहता हूँ ॥३१॥ जो रति (राग) और अरति (द्वेष) भाव को त्याग कर परम शान्त दशा को प्राप्त हो गया है, सर्व प्रकार की उपाधियों से रहित है, ऐसे सर्व लोक-विजयी वीर पुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३२॥ जो सर्व सत्त्वों (प्राणियों) के च्युति (मरण) और उत्पत्ति को जानता है, जो सर्व पदार्थों की आसक्ति से रहित है, ऐसे सगति और बोधिको प्राप्त सगत बद्ध परुष को ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३३॥ जिसकी गति (ज्ञानरूप दशा) को देव, गन्धर्व और मनुष्य नहीं जान सकते, ऐसे क्षीण-आस्रव वाले अरहन्त को ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३४॥ लोके अदिन्नं नादियति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२३॥ निरासयं विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२४॥ अमतोगदं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२५॥ अशोकं विरजं सुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२६॥ नंदी भवपरिक्खीण तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२७॥ योध दीधं रहस्सं वा अणुं थूलं सुभासुभ । आसा यस्स न विज्जति अस्मिं लोके परम्हि च । यस्सालया न विज्जति अञ्जाय अकथंकथी । योध पुजं च पाप च संगं उपच्चगा । चंदं व विमलं सुद्धं विप्पसन्नमनाविलं । यो मं पलिपथं दुग्गं संसारं मोहमच्चगा । तिण्णो पारगतो झायी अनेजो अकथंकथी । योध कामे पहत्वानं अनगारो परिव्वजे । योध तणहं पहत्वानं अनगारो परिव्वजे । हित्वा मानुसकं योगं दिव्वं योगं उपच्चगा । हित्वा रतिं च अरतिं च सीतीभूतं निरुपधिं । चुतिं यो वेदि सत्तानं उपपत्तिं च सव्वसो । यस्स गतिं न जानंति देवा गंधव्व-मानुसा । अनुपादाय निव्वुतो तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२८॥ काम-भवपरिक्खीणं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२९॥ तण्हाभवपरिक्खीणं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३०॥ सव्वयोग-विसंयुत्त तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३१।। सव्वलोकाभिमुं वीरं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३२॥ असत्तं सुगतं बुद्धतमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३३॥ खीणासवं अरहंतं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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