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________________ 46 अमुक माता-पिता से उत्पन्न होने के कारण पुरुष ब्राह्मण नहीं होता । किन्तु चाहे वह अकिंचन (दरिद्र हो या संकिचन (धनिक), पर जो सर्व प्रकार की मोह-माया से रहित हो, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूँ ॥१०॥ जिसने सर्व प्रकार के बन्धन काट दिये हैं, जो निर्भय है, जो स्वाधीन है और बन्धन-रहित है मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ ॥११॥ जिसने द्वेषरूपी, रागरूपी डोरी, अश्रद्धारूपी जंजीर और उसके साथ सम्बन्ध रखने वाली अन्य वस्तुओं को एवं अज्ञानरूपी अर्गला (सांकल) को तोड़ डाला है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ ॥१२॥ जो आक्रोश (गाली-गलौज) वध और बन्धन को द्वेष किये बिना मैत्री-भाव से सहन करता है, क्षमा के बलवाली ही जिसकी सेना है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं ॥१३॥ जो क्रोध-रहित है, व्रतवान् है, शीलवान् है, तृष्णा-रहित है, संयमी है और जो अन्तिम शरीर-धारी है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ ॥१४॥ जैसे कमल-पत्र पर जल-बिन्दु नहीं ठहरता और सूई की नोक पर सरसों का दाना नहीं टिकता, उसी प्रकार जो काम-भोगों में लिप्त नहीं होता है, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूँ ॥१५॥ जो यहां पर ही अपने दु:ख का अन्त जानता है, ऐसे भार-विमुक्त और विरक्त पुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥१६॥ जिसका ज्ञान गम्भीर है, जो मेधावी है, सुमार्ग और कुमार्ग को जानता है और जिसने उत्तमार्थ को प्राप्त कर लिया है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ ॥१७॥ जो गृहस्थ और अनगार भिक्षुओं से अलग रहता है, जो घर-घर भीख नहीं मांगता, अल्प इच्छा वाला है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥१८॥ जो विरोधियों पर भी अविरोध-भाव रखता है, जो दण्ड-धारियों में भी दण्ड-रहित है और जो ग्रहण करने वालों में भी आदान-रहित है मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ. ॥१९॥ जो त्रस और स्थावर प्राणियों पर डंडे से प्रहार नहीं करता, न स्वयं मारता है और न दूसरों से घात कराता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२०॥ जिसके राग, द्वेष, मान और मत्सर भाव इस प्रकार से नष्ट हो गये हैं जिस प्रकार से कि सूई की नोक से सरसों का दाना सर्वथा दूर हो जाता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२१॥ जो कठोरता-रहित, सत्य एवं हितकारी मधुर वचन बोलता है और किसी का अपने कटु सत्य से जी भी नहीं दुखाता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ ॥२२॥ न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसंभवं । भोवादी नाम सो होति स चे होति संकिचनो । सव्वसंजोयनं छत्वा यो वे न परितस्सति । छत्वा नन्धि वरत्तं च सन्दानं सहनुक्कम । अक्कोसं बध बधं च अट्ठो यो तितिक्खति । अक्कोधनं वतवंतं सीलवंतं अनुस्सदं । वारि पोक्खर-पत्तेव आरग्गेरिव सासपो । यो दुक्खस्स पजानाति इधेव खयमत्तनो । गंभीरपज मेधावी मग्गामग्गस्स कोविदं । असंसटुं गहडेहि अनागारेहि चूभयं । अविरुद्ध विरुद्धेसु अत्तदंडेसु निव्वुतं । निधाय दंडं भूतेसु तसेसु थावरेसु च । यस्स रागो च दोसो च मानो मक्खो च पातितो । अकक्कंस विजापनि गिरं सच्चं उदीरये । अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रमि ब्राह्मणं ॥१०॥ संगातिगं विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥११॥ उक्खित्तपलिधं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मण ॥१२॥ खंतीबलं बलानीकं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१३॥ दंतं अंतिम सारीरं तमहं ब्रूमि बाह्मणं ॥१४॥ यो न लिंपति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१५॥ पन्नभारं विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१६॥ । उत्तमत्थं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१७॥ अनोकसारि अप्पिच्छं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१८॥ सादानेसु अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥१९॥ यो न हंति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२०॥ सासपोरिव आरग्गा तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥२१॥ याय नाभिसजे किंचि तमहं ब्रूमि ब्राह्मण ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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