________________
45
में मानने लगे और उनका उपयोग स्वयं भी करने लगे । फल यह हुआ कि उनके धर्म का अनुयायी वर्ग भी धीरेधीरे मद्य-पायी और मांस-भोजी हो गया ।
खान-पान की शिथिलता रखने पर भी उन्होंने लोगों में मित्ती (मैत्री) मुदिता (प्रमोद) करुणा और मध्यस्थता रूप चार प्रकार की धार्मिक भावनाएं रखने का उपदेश दिया । उस समय जो ब्राह्मणों का प्राबल्य था और जिसके कारण वे स्वयं हीनाचारी पापी जीवन बिताते हुए अपने को सर्वोच्च मानते थे, उसके विरुद्ध बड़े जोर-शोर के साथ अपनी आवाज बुलन्द की । उनके इन धार्मिक प्रवचनों का संग्रह 'धम्मपद' (धर्मपद) के नाम से प्रसिद्ध है और जिसे आज बुद्ध-गीता भी कहा जाता है । यह धम्मपद बुद्ध की वाणी के रूप में प्रख्यात है । उसमें के ब्राह्मण-वर्ग का यहां उद्धरण दिया जाता है । ब्राह्मण को लक्ष्य करके बुद्ध कहते हैं
हे ब्राह्मण, विषय-विकार के प्रवाह को वीरता से रोक और कामनाओं को दूर भगा । जब तुम्हें उत्पन्न हुई नाम रूप वाली वस्तुओं के नाश का कारण समझ में आ जायगा, तब तुम अनुत्पन्न वस्तु को जान लोगे ॥१॥
जिस समय ब्राह्मण ध्यान और संयम इन दो मार्गों में व्युत्पन्न हो जाता है, उस समय उस ज्ञान-सम्पन्न पुरुष के सब बन्धन कट जाते हैं ॥२॥
जिस पुरुष के लिए आर-पार कुछ भी नहीं रहा, अर्थात् भीतरी और बाहिरी इन्द्रियों से उत्पन्न हुए सुख-दुख में राग-द्वेष नहीं है, उस निर्भय और विमुक्त पुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३॥
जो विचारशील, निर्दोष, स्थिर-चित्त, कर्त्तव्य-परायण एवं कृतकृत्य है, विषय-विकार से रहित है और जिसने उच्चतम आदर्श की प्राप्ति कर ली है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥४॥
जिसने पाप का त्याग कर दिया है, वह ब्राह्मण है । जो समभाव से चलता है वह श्रमण है और जिसने अपनी मलिनता को दूर कर दिया है वह प्रब्रजित कहलाता है ॥५॥
मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ जो शरीर, वाणी और मन से किसी का जी नहीं दुखाता और जो इन तीनों ही बातों में संयमी है ॥६॥
मनुष्य अपने जटा-जूट, जन्म और गोत्र के कारण ब्राह्मण नहीं बन जाता, किन्तु जिसमें सत्य और धर्म है, वही पवित्र है, और वही ब्राह्मण है ॥७॥
ओ मूर्ख, जटा-जूट रखने से और मृग-चर्म धारण करने से क्या लाभ ? भीतर तो तेरे तृष्णारूपी गहन वन है। किन्तु तू बाहिरी शुद्धि करता है ॥८॥
जिसने धूमिल वस्त्र पहिने हैं, शरीर की कृशता से जिसकी नसें दिखाई पड़ती हैं और वन में एकाकी ध्यान करता है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ ॥९॥
तिमिपूरणासणेहिं अहिंगय-पवज्जाओ परिब्भट्टो । रत्तं बरं धरित्ता पवट्टियं तेण एयतं ॥७॥ मंसस्स णत्थि जीवो जहा फले दहिय-दुद्ध-सकरए। तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खं तो ण पाविट्ठो ॥८॥ मजं ण वज्जणिज्जं दवदव्वं जह जलं तहा एदं । इदि लोए घोसित्ता पवट्टियं सव्व सावजं ॥९॥ (दर्शनसार) छिन्द सोतं परकम्म काये पनुद ब्राह्मण । संखारानं खयं त्रत्वा अकतञ्जूसि ब्राह्मण ॥१॥ यदा द्वयेसु धम्मेसु पारगू होति ब्राह्मणो । अथस्स सव्वे संयोगा अत्थं गच्छंति जानतो ॥२॥ यस्सं पारं अपारं वा पारापारं न विज्जति । वीतरं विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३॥ झायिं विरजमासीनं कतकिच्चं अनासवं । उत्तमत्थमनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥४॥ बाहितपापो ति ब्राह्मणो समचरिया समणो त्ति वुच्चति । पव्वाजयमत्तनो मलं तस्मा पव्वजितो ति वुच्चति ॥५॥ यस्स कायेन वाचा य मनसा नत्थि दुक्कतं । संवुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥६॥ न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो । यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ॥७॥ किं ते जटाहि दुम्मेध किं ते अजिनसाटिया ।। अब्भन्तरं ते गहनं बाहिरं परिमज्जसि ॥८॥ पंसु कूलधरं जन्तुं किसं धमनिसन्थतं ।
एकं वनस्मिं झायन्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥९॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org