SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 44 (४) मुकुन्दमह या वासुदेवमह श्री कृष्ण की पूजन (५) नागमह सर्पों की पूजन (६) वैभ्रमणमह कुबेर की पूजन (७) यक्षमह-यक्ष देवताओं की पूजन (८) भूतमह - भूत पिशाचों की पूजन । भ. महावीर को इन सैकड़ों प्रकार के पाखण्डों और पाखण्डियों के मतों का सामना करना पड़ा और अपनी दिव्य देशना के द्वारा उन्होंने इन सबका निरसन करके और शुद्ध धर्म का उपदेश देकर भूले-भटके असंख्य प्राणियों को सन्मार्ग पर लगाया । भ. महावीर और महात्मा बुद्ध भ. महावीर के समकालीन प्रसिद्ध पुरुषों में शाक्य श्रमणगौतम बुद्ध का नाम उल्लेखनीय है। आज संसार में बौद्ध धर्मानुयायियों की संख्या अत्यधिक होने से महात्मा बुद्ध का नाम विश्वविख्यात है । चीन, जापान, श्रीलंका आदि अनेक देश आज उनके भक्त हैं। किन्तु एक समय था जब भ महावीर का भक्त भी अगणित जन समुदाय था। आज चीनी और जापानी बौद्ध होते हुए भी आमिष - (मांस) भोजी हैं । बौद्ध धर्म की स्थापना तो शाक्य पुत्र गौतम नेकी, परन्तु जैन धर्म तो युग के आदि काल से ही चला आ रहा है । . बुद्ध दि. जैन शास्त्रों के उल्लेखों के अनुसार बुद्ध का जन्म महावीर से कुछ पहिले कपिलवस्तु के महाराज शुद्धोदन के यहां हुआ था। जब उनका जन्म हुआ, उस समय भारत में सर्वत्र ब्राह्मणों का बोल बाला था और वे सर्वोपरि माने जा रहे थे, तथा वे ही सर्व परिस्थितियां थी, जिनका कि पहिले उल्लेख किया जा चुका है। बुद्ध का हृदय उन्हें देखकर द्रवित हो उठा और एक वृद्ध पुरुष की जराजर्जरित दशा को देखकर वे संसार से विरक्त हो गये । उस समय भ. पार्श्वनाथ का तीर्थ चल रहा था, अतः पिहितास्रव नामक गुरु के पास पलास नगर में सरयू नदी के तीर पर जाकर उन्होंने दैगम्बरी दीक्षा ले ली और बहुत दिनों तक उन्होंने जैन साधुओं के कठिन आचार का पालन किया। उन्होंने एक स्थल पर स्वयं ही कहा है "मैं वस्त्र रहित होकर नग्न रहा, मैंने अपने हाथों में भोजन किया, मैं अपने लिए बना हुआ उद्दिष्ट भोजन नहीं करता था, निमन्त्रण पर नहीं जाता था। मैं शिर और दाढ़ी के बालों का लाँच करता था। मैं आगे भी केशलंच करता रहा । मैं एक जल-बिन्दु पर भी दया करता था। मैं सावधान रहता था कि सूक्ष्म जीवों का भी घात न होने पावे ।" " इस प्रकार में भयानक वन में अकेला गर्मी और सर्दी में भी नंगा रहता था। आग से नहीं तापता था और मुनि चर्या में लीन रहता था । " लगभग छह वर्ष तक घोर तपश्चरण करने और परीषह उप-सर्गों को सहने पर भी जब उन्हें न कैवल्य की प्राप्ति न हुई और न कोई ऋद्धि-सिद्धि ही हुई, तब वे उग्र तपश्चरण छोड़कर और रक्ताम्बर धारण करके मध्यम मार्ग का उपदेश देने लगे । यद्यपि वे जीवघात को पाप कहते थे और उसके त्याग का उपदेश देते थे । तथापि स्वयं मरे प्राणी का मांस खाने को बुरा नहीं समझते थे । मांस को वे दूध-दही की श्रेणी में और मद्यादिक को जल की श्रेणी हुए १. सिरिपासणाह तित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुद्धकित्तिमुणी ॥६॥ (दर्शनसार) २. अचेलको होमि... हत्थायालेखनो होमि......नाभिहितं न उद्दिस्सकतं न निमत्रण सादि यामि, केस मस्सुलोचकोवि होमि, केसमस्सुलोचनानुयोगं अनुयुक्ते । यात उद-बिन्दुम्मि पिये दया पच्च पट्टिता होमि, याहं खुद्दके पाणो विम संघात आयदिस्संति । ३. सो तत्तो सो सो ना एको तिंसतके वने । नग्गो न च अग्नि असीनो एसना पसुत्तो मुनीति || Jain Education International For Private & Personal Use Only (महासीहनादसुत्त) www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy