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________________ 48 ५ जिसके आगे, पीछे या मध्य में (वर्तमान में, सामने) कुछ भी नहीं है, ऐसे अकिंचन और अनादान (आसक्तिरहित होकर कुल भी ग्रहण नहीं करने वाले) पुरुष को ही मैं ब्राह्मण कहताहूँ ॥३५।। जो वृषभ (धर्म का धारक) है, सर्व श्रेष्ठ है, वीर है, महर्षि है, विजेता है, निष्कम्प है, निष्पाप है, स्नातक है, बुद्ध है, ऐसे पुरुष को ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३६॥ जो पूर्व निवास अर्थात् पूर्व-जन्मों को जानता है, जो स्वर्ग और नरक को देखता है, जो जन्म-मरण के चक्र का क्षय कर चुका है, जो पूर्ण ज्ञानवान् है, ध्यानी है, मुनि है और ध्येय को प्राप्त कर सर्व प्रकार से परिपूर्ण है, ऐसे पुरुष को ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ॥३७॥ श्वेताम्बरी उत्तराध्ययन सूत्र में भी पच्चीसवें 'जन्नइज' अध्ययन के अन्तर्गत 'ब्राह्मण' के स्वरूप पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला गया है, उससे भी यह सिद्ध होता है कि भ. महावीर के समय में यद्यपि ब्राह्मणों का बहुत प्रभाव था, तथापि वे यथार्थ ब्राह्मणत्व से गिरे हुए थे । श्वे. मान्यता के अनुसार उत्तराध्ययन में भ. महावीर के अन्तिम समय के प्रवचनों का संग्रह है । भ. महावीर ब्राह्मणों को लक्ष्य कहते हैं जो आने वाले स्नेही जनों में आसक्ति नहीं रखता, प्रबजित होता हुआ शोक नहीं करता और आर्य पुरुषों के वचनों में सदा आनन्द पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥१॥ जो यथाजात-रूप का धारक है, जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किये हए और केसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष और भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥२॥ . जो तपस्वी है, जो शरीर से कृश (दुबला-पतला) है, जो इन्द्रियनिग्रही है, उग्र तप:साधना के कारण जिसका रक्त और मांस भी सूख गया है, जो शुद्ध व्रती है, जिसने आत्म-शान्ति रूप निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥३॥ जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों को भली-भांति जानकर उनकी मन, वचन और काय से कभी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।४॥ जो क्रोध से, हास्य से, लोभ से अथवा भय से असत्य नहीं बोलता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।।५।। जो अल्प या बहुत, सचित्त या अचित्त वस्तु को मालिक के दिए बिना चोरी से नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥६॥ जो देव, मनुष्य एवं तिर्यञ्च-सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन का मन वचन और काय से कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥७॥ जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार जो संसार में रहकर भी कामभोगों से सर्वथा अलिप्त रहताहै, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥८॥ - - - - - - - - - - - - - - - - जस्स पुरे च पच्छा च मज्झे च नत्थि किंचन । अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३५॥ उसमें पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं । अनेजं न्हातकं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३६॥ पुव्वनिवास यो वेदि सग्गापायं च पस्सति । अथो जातिक्खयं पत्तो अभिञ्जा वोसिता मुनी । सव्व-वोसित-वोसानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥३७॥ । (धम्मपद, ब्राह्मण-वर्ग) जो न सज्जइ आगतुं पव्वयंतो न सोयई । रमइ अज-वयणम्मि तं वयं बूम माहणं ॥३॥ जायरुवं जहामटुं निद्धं तमलपावगं । राग-दोस-भयाईयं तं वयं बम माहणं ॥२॥ तवस्सियं किसं दंतं अवचिय-मंस-सोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वय बूम माहणं ॥३॥ तस पाणे वियाणित्ता संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं स्वय बूम माहणं ॥४॥ कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उतं वयं बूम माहणं ।।५।। चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहु । न गिण्हइ अदत्तं जे तं वयं बूम माहणं ॥६॥ दिव्य-माणुस-तेरिच्छं जो न पेवइ मेहुणं । मणसा काय-वक्केण तं वयं बूम माहणं ।।७।। जहा पोम्मं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं बम माहणं ॥८॥ - - - - - . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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