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________________ 35 की ओर विहार कर दिया । मार्ग में पेढाल-उद्यान के चैत्य में जाकर तेला का उपवास ग्रहण कर एक शिला पर ही ध्यान-स्थित हो गये । एक रात्रि को जब भगवान् ध्यानारूढ़ थे, तब संगमक देव ने रात भर भंयकर से भंयकर नाना प्रकार के उपसर्ग किये । पर वह भगवान् को ध्यान से विचलित न कर सका । प्रातः काल होने पर वह अन्तर्धान हो गया और भगवान् ने वालुका की ओर विहार किया । वहां से सुयोग, सुच्छेत्ता, मलय और हस्तिशीर्ष आदि गांवों में विचरते हुए तोसलि गांव पहुँचे । मार्ग में वह संगमक देव कुछ न कुछ उपद्रव करता ही रहा, मगर भगवान् निर्विकार रहते हुए सर्वत्र विजय पाते रहे । तोसलि गांव से भगवान् मोसलि गांव पहुंचे और वहां के उद्यान में कायोत्सर्ग लगाकर ध्यान-स्थित हो गये । यहां संगमक ने उपद्रव करना प्रारंभ किया और चोर कह कर राज्याधिकारियों से पकड़वा दिया । वहां के राजा ने आपसे कई प्रश्न पूछे । पर जब कोई उत्तर नहीं मिला, तब उसने क्रोध में आकर आपको फांसी लगाने का हुक्म दे दिया । भगवान् के गले में फांसी का फंदा लगाया गया और ज्यों ही नीचे का तख्ता हटाया गया, त्यों ही फंदा टूट गया । इस प्रकार सात बार फांसी लगायी गयी और सातों ही बार फंदा टूटता गया यह देख कर सभी अधिकारी आश्चर्यचकित होकर राजा के पास पहुँचे । राजा इस घटना से बड़ा प्रभावित हुआ और उसने भगवान् के पास जाकर क्षमा मांगी और उन्हें बन्धन से मुक्त कर दिया । मोसलिग्राम से भगवान् सिद्धार्थपुर गये । वहां पर भी भगवान् को चोर समझ कर पकड़ लिया गया । किन्तु एक परिचित व्यक्ति ने उन्हें छुड़वा दिया । वहां से भगवान् वज्रग्राम गये । जब वे पारणा के लिए नगर में विचर रहे थे, तो वहां भी संगमक ने आहार में अन्तराय किया । तब भगवान् आहार लिए बिना ही वापिस चले आये । इस प्रवास में पूरे छह मास के पश्चात् भगवान् की पारणा वज्रग्राम में एक वृद्धा के यहां हुई ।। वज्रग्राम से भगवान् आलंभिया, सेयविया आदि ग्रामों में विचरते हुए श्रावस्ती पहुँचे और नगर के बाहरी उद्यान में ध्यानस्थित हो गये । पुनः वहां से विहार कर कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि नगरों में विहार करते हुए वैशाली पहुंचे और ग्यारहवां चातुर्मास आपने यहीं पर व्यतीत किया और पूरे चातुर्मास भर भगवान् ने उपवास किये। बारहवां वर्ष वैशाली से भगवान् ने सुंसुमारपुर की ओर विहार किया और क्रमशः भोगपुर और नन्दग्राम होते हुए मेढियग्राम पधारे । यहां पर भी एक गोपालक ने भगवान् को कष्ट देने का प्रयास किया । . मेढियग्राम से भगवान् कौशाम्बी गये और पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवान् ने गोचरी को जाते समय यह अभिग्रह लिया कि "यदि शिर से मुंडित, पैरों में बेड़ी, तीन दिन की उपासी, पके हुए उड़द के वाकुल सूप के कोने में लेकर द्वार के बीच में खड़ी हुई, दासीपने को प्राप्त हुई किसी राजकुमारी के हाथ से भिक्षा मिलेगी, तो ग्रहण करुंगा, अन्यथा नहीं।" ऐसे अटपटे अभिग्रह को लेकर भगवान् लगातार चार मास तक नगर में गोचरी को जाते रहे । मगर अभिग्रह पूरा नहीं हुआ । सारे नगर में चर्चा फैल गई कि भगवान् भिक्षा के लिए आते तो हैं, परन्तु बिना कुछ लिए ही लौट जाते हैं । वहां के निवासियों ने और राजा ने भी अभिग्रह जानने के लिए अनेक प्रयत्न किये, पर कोई सफलता नहीं मिली । इस प्रकार पांच दिन कम छह मास बीत गये । इस दिन सदा की भांति भगवान् गोचरी को आये कि अभिग्रह के अनुसार चन्दना को पडिगाहते हुए देखा और अपना अभिग्रह पूरा होता देखकर उसके हाथ से आहार ले लिया । भगवान् के आहार ग्रहण करते ही चन्दना की सब बेड़ियां खुल गईं और आकाश में जय-जय कार ध्वनि गूंजने लगी। भगवान् आहार करके इधर वापिस चले आये और उधर राजा शतानिक को जब यह बात ज्ञात हुई, तो वह चन्दना के समीप पहुँचे । चन्दना को देखते ही रानी मृगावती ने उसे पहिचान लिया और बोली- अरे यह तो मेरी बहिन है' ऐसा कह कर उसे वहां से राज-भवन ले आई । पुनः उसने अपने पिता के यहां यह समाचार भेजा और राजा चेटक वैशाली से चन्दना को अपने घर लिवा ले गये । कालान्तर में यही चन्दना भगवान् के संघ की प्रथम साध्वी हुई । कौशाम्बी से विहार कर भगवान् सुमंगल, सुच्छेता, पालक ग्रामों में विचरते हुए चम्पापुरी पहुंचे और चार मास के उपवास का नियम लेकर वहीं चौमासा पूर्ण किया । चातुर्मास के पश्चात् विहार करके जंभियग्राम गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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