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जंभियग्राम में कुछ दिन रहने के पश्चात् भगवान् वहां से मेढियाग्राम होते हुए छम्माणि गये और गांव के बाहिर ही ध्यान में स्थित हो गये । रात के समय कोई गुवाला भगवान् के पास बैल छोड़कर गांव में चला गया और जब वापिस आया तो उसे बैल वहां नहीं मिले। उसने भगवान् से पूछा- देवार्य, मेरे बैल कहां गये ? भगवान् की ओर से कोई उत्तर नहीं मिलने पर क्रोधित होकर उसने कांस की शलाकाएं दोनों कानों में घुसेड़ दी और पत्थर से ऐसा ठोका कि कान के भीतर वे आपस में मिल गई। कान से बाहिर निकली शलाकाओं को उसने तोड़ दिया, ताकि कोई उनको देख न सके ।
श्वे. शास्त्रों में इस उपसर्ग का कारण यह बतलाया गया है कि जब महावीर का जीव त्रिपृष्ठ नारायण के भव में था, तब एक दिन रात्रि के समय वह सुख से अपनी शय्या पर लेटे थे और उनके सामने अनेक संगीतज्ञ सुन्दर संगीत -गान कर रहे थे । नारायण ने शय्या पाल से कहा कि जब मुझे नींद आ जाय, तो इन गायकों को विदा कर देना । संगीत की सुरीली तान के सुनने में वह शय्या पाल इतना तन्मय हो गया कि नारायण के सो जाने पर भी गायकों को विदा करना भूल गया और सारी रात गायक गाते रहे । नारायण जागे और गायकों को गाते हुए देखकर शय्यापाल पर आग-बबूला होकर उससे पूछा कि गायकों को अभी तक विदा क्यों नहीं किया ? उसने विनम्र होकर उत्तर दिया- महाराज, में संगीत सुनने में तन्मय हो गया और आपका आदेश भूल गया । शय्या पाल के उत्तर से नारायण और भी कुद्ध हुए और अधिकारियों को आदेश दिया कि इसके दोनों कानों में पिघला हुआ गर्म शीशा भर दिया जाय । बेचारा शय्या-पाल गर्म शीशे के कानों में पड़ते ही छटपटा कर मर गया । उस समय का बद्ध यह निकाचित कर्म महावीर के इस समय उदय में आया और अनेक योनियों में परिभ्रमण के बाद उसी शय्यापाल का जीव गुवाला बना और पूर्व भव के वैर से बैलों का निमित्त पाकर उसका रोष इतना बढ़ा कि उसने महावीर के दोनों कानों में शालकाएं ठोक दी ।
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तेरहवां वर्ष
छम्माणि से विहार करते हुए भगवान् मध्यमपावा पधारे और गोचरी के लिए घूमते हुए सिद्धार्थ वैश्य के घर पहुँचें । आहार करते समय वहां उपस्थित खरक वैद्य ने भांपा कि भगवान् के शरीर में कोई शल्य है । आहार कर भगवान् गांव के बाहिर चले गये और उद्यान में पहुँच कर ध्यानारूढ़ हो गये । सिद्धार्थ भी वैद्य को लेकर वहां पहुँचा और शरीर की परीक्षा करने पर उसे कान में ठोकी हुई कीलें दिखाई दी । तब उसने संडासी से पकड़ कर दोनों शलाकाएं कानों से खीचंकर बाहिर निकाल दी और कानों में घाव भरने वाली औषधि डाली । पुनः वन्दना करके वे दोनों वापिस गांव में लौट आये ।
इस प्रकार भयानक उपसर्ग और परीषह सहन करते हुए, तथा नाना प्रकार के तपश्चरण करते हुए भगवान् ने साढ़े बारह वर्ष व्यतीत किये ।
इस छद्मस्थ काल में भगवान् के द्वारा किये गये तपश्चरण का विवरण इस प्रकार है
छह मासी अनशन तप
पांच दिन कम छह मासी तप
चातुर्मासिक तप
त्रैमासिक तप
अढ़ाई मासिक तप
दो मासी तप
डेढ मासी तप
एक मासी तप
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१ पक्षोपवास
१ भद्र प्रतिमा २ दिन
९ महाभद्रप्रतिमा ४ दिन
२ सर्वतोभद्र प्रतिमा १० दिन
२ षष्ठोपवास (वेला)
६ अष्टमभक्त (तेला)
२ पारणा के दिन
१२ दीक्षा का दिन
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७२
२२९
१२ ३४९
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