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________________ 34 परिचय पूछा, कुछ उत्तर न मिलने पर उन्होंने गुप्तचर जानकर उन्हें पकड़ लिया और राजा के पास ले गये । वहां पर भगवान् का पूर्व परिचित उत्पल ज्योतिषी बैठा हुआ था, वह भगवान् को देखते ही उठ खड़ा हुआ और भगवान् को नमस्कार कर राजा से बोला- राजन् ये तो राजा सिद्धार्थ के पुत्र धर्म-चक्रवर्ती तीर्थङ्कर भगवान् महावीर हैं, गुप्तचर नहीं हैं । तब राजा ने उनके बन्धन खुलवाये और क्षमा मांग कर उनका आदर-सत्कार किया । लोहार्गला से भगवान् ने पुरिमतालपुर की ओर विहार किया और नगर के बाहिरी उद्यान में कुछ समय तक ठहरे। पुरिमताल से भगवान् उन्नाग और गोभूमि होकर राजगृह पहुँचे और वहीं आठवां चातुर्मास किया । इस चौमासे भर भी भगवान् ने उपवास ही रखकर आत्म-चिन्तन किया । चातुर्मास के समाप्त होने पर पारणा करके भगवान् ने वहां से विहार कर दिया । नवां वर्ष राजगृह से भगवान् ने पुनः लाढ देश की ओर विहार किया और वहां के वज्र-भूमि, सुम्ह- भूमि जैसे अनार्य प्रदेश में पहुँचे । यहां पर ठहरने योग्य स्थान न मिलने से वे कभी किसी वृक्ष के नीचे और कभी किसी खंडहर में ठहरते हुए विचरने लगे । यहां के लोग भगवान् की हंसी उड़ाते, उन पर धूलि और पत्थर फेंकते, गालियां देते और उन पर शिकारी कुत्ते छोड़ते थे । पर इन सारे कष्टों को सहते हुए कभी भी भगवान् के मन में किसी प्रकार कोई का रोष या आवेश नहीं आया । चातुर्मास आ जाने पर भी भगवान् को ठहरने योग्य कोई स्थान नहीं मिला, अतः पूरा चौमासा उन्होंने वृक्षों के नीचे या खंडहरों में रहकर ही बिताया । चातुर्मास समाप्त होने पर भगवान् ने वहां से विहार कर दिया । यहां यह ज्ञातव्य है कि भगवान् इस अनार्य देश में छह मास तक विचरण करते हुए रहे, पर एक भी दिन आहार नहीं लिया, अर्थात छह मास के लगातार उपवास किये । दशवां वर्ष अनार्य देश से निकल कर भगवान् ने सिद्धार्थपुर की ओर विहार किया और क्रमशः विचरते हुए वैशाली पहुंचे। एक दिन नगर के बाहिर आप कायोत्सर्ग से ध्यानावस्थित थे कि वहां के लड़कों ने आपको पिशाच समझ कर बहुत परेशान किया । जब वहां के राजा को इस बात का पता चला, तो वह भगवान् के पास आया और पहिचान कर उनसे लड़कों के दुष्कृत्यों की क्षमा मांगी और वन्दना की । वैशाली से भगवान् ने वाणिज्य ग्राम की ओर विहार किया । मार्ग में गण्डकी नदी मिली । भगवान् ने नावद्वारा उसे पार किया । नदी के उस पार पहुंचने पर नाविक ने उतराई मांगी । जब कुछ उत्तर या उत्तराई नहीं मिली, तो उसने भगवान् को रोक लिया । भाग्य से एक परिचित व्यक्ति तभी वहां आया । उसने भगवान् को पहिचान कर नाविक को उतराई दी और भगवान् को मुक्त कराया । वहां से विहार कर भगवान् वाणिज्यग्राम के बाहिर में स्थित हो गये। जब वहां के निवासी श्रमणोपासक आनन्द को भगवान् के पधारने का पता चला, तो उसने आकर भगवान् की वन्दना की । वहां से विहार कर भगवान् श्रावस्ती पधार और दशवां चातुर्मास आपने यहीं पर बिताया । यहां यह ज्ञातव्य है कि गोशाला ने चातुर्मास के पूर्व ही भगवान् का साथ छोड़ दिया था और तेजोलेश्या की साधना कर स्वयं नियतिवाद का प्रचारक बन गया था । ग्यारहवां वर्ष श्रावस्ती से भगवान् ने सानुलट्ठिय सनिवेश की ओर विहार किया । इस समय आपने भद्र, महाभद्र और सर्वतोभद्र तपस्याओं को करते हुए सोलह उपवास किये । तपका पारणा भगवान् ने आनन्द उपासक के यहां किया और दृढभूमि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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