SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 33 छठा वर्ष कदली-समागम से भगवान् जम्बूखंड गये और वहां से तम्बाय सन्निवेश गये और गांव के बाहिर ध्यान-स्थित हो गये । यहां पार्श्व-सन्तानीय नन्दिषेण आचार्य रात्रि में किसी चौराहे पर ध्यान-स्थित थे, तब वहां के कोट्टपाल के पुत्र ने उन्हें चोर समझ कर भाले से मार डाला | गोशाला ने इसकी सूचना नगर में दी और वापिस भगवान् के पास आ गया । तम्बाय-सन्निवेश से भगवान् कूपिय-सन्निवेश गये । यहां के लोगों ने उन्हें गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया और खूब पीटा । बाद में उन्हें कैद करके कारागृह में डाल दिया । इस बात की सूचना जब पार्श्वनाथ-सन्तानीय विजया और प्रगल्भा साध्वियों को मिली, तो उन्होंने कारागृह के अधिकारियों से जाकर कहा- 'अरे यह क्या किया ? क्या तुम लोग सिद्धार्थ के पुत्र भ. महावीर को नहीं पहिचानते हो ? इन्हें शीघ्र मुक्त करो । भगवान् का परिचय पाकर उन्होंने अपने दुष्कृत्य का पश्चात् किया, भगवान् से क्षमा मांगी और उन्हें कैद से मुक्त कर दिया । कूपिय-सन्निवेश से भगवान् ने वैशाली की ओर विहार किया । इस समय गोशाला ने भगवान् से कहा-'भगवान्, न तो आप मेरी रक्षा करते हैं और न आपके साथ रहने में मुझे कोई सुख है । प्रत्युत कष्ट ही भोगना पड़ते हैं और भोजन की भी चिन्ता बनी रहती है ।' यह कहकर गोशाला राजगृह की ओर चला गया । भगवान् वैशाली पहुँच कर एक कम्मारशाला में ध्यान-स्थित हो गये । दूसरे दिन जब उसका स्वामी आया और उसने भगवान् को वहां खड़ा देखा तो हथोड़ा लेकर उन्हें मारने के लिए झपटा, तब किसी भद्र पुरुष ने आकर उन्हें बचाया । वैशाली से विहार कर भगवान् ग्रामक-सन्निवेश आये. और गांव के बाहिरी यक्ष-मन्दिर में ध्यान-स्थित रहे । वहां से चलकर भगवान् शालीशीर्ष आये और यहां पर भी नगर के बाहिर ही किसी उद्यान में ध्यान-स्थित हो गये । माद्य का महीना था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी और भगवान् तो नग्न थे ही । ऐसी अति भंयकर शीत वेदना को सहते समय ही वहां की अधिष्ठात्री कोई व्यन्तरी आई और संन्यासिनी का रूप बनाकर अपनी बिखरी हुई जटाओं में जल भर कर भगवान् के ऊपर छिड़कने लगी और उनके कन्धे पर चड़ कर अपनी जटाओं से हवा करने लगी । इस भंयकर शीत-वेदना को भगवान् ने रात भर परम शान्ति से सहा । प्रातः होते ही वह अपनी हार मान कर वहां से चली गई और उपसर्ग दूर होने पर भगवान् ने वहां से भद्दिया नगरी की ओर विहार किया । छठा चातुर्मास भगवान् ने भद्दिया में ही बिताया । इस चौमासे भर भी भगवान् ने उपवास ही किया और अखण्ड रूप से आत्म-चिन्तन में निरत रहे। इधर गोशाला छह मास तक इधर-उधर घूम कर और अनेक कष्ट सहन करके भगवान् के पास पुनः आ गया । चातुर्मास समाप्त होने पर पारणा करके भगवान ने मगध देश की ओर विहार किया । सातवां वर्ष भगवान् शीत और ग्रीष्म ऋतु के पूरे आठ मास तक मगध के अनेक ग्रामों में विचरते रहे । गोशाला भी साथ रहा । वर्षा-काल समीप आने पर चातुर्मास के लिए भगवान् आलंभिया पुरी आये । यहां पर भी उन्होंने चार मास का उपवास अङ्गीकार किया और आत्म-चिन्तन में निरत रहे । चौमासा पूर्ण होने पर पारणा करके भगवान् ने कुंडाक-सनिवेश की ओर विहार किया । आठवां वर्ष कुंडाक-सन्निवेश में भगवान् वासुदेव के मन्दिर में कुछ समय तक रहे । पुनः वहां से विहार कर मद्दन्न-सन्निवेश के बलदेव-मन्दिर में ठहरे । पश्चात् वहां से चल कर बहुसालग गांव में पहुंचे और शालवन में ध्यान-स्थित हो गये । यहां पर भी एक व्यन्तरी ने भगवान् के ऊपर घोरातिघोर उपसर्ग किये और अन्त में हार कर वह अपने स्थान को चली गई । उपसर्ग दूर होने पर भगवान् ने भी वहां से विहार किया और लोहार्गला पहुँचे । वहां के पहरेदारों ने इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy