SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 26 श्वे. मान्यता है कि स्वयं सौधर्मेन्द्र ही प्रसूति गृह में जाकर, माता की स्तुति कर और उन्हें निद्रित कर के मायामयी शिशु को रखकर भगवान् को बाहिर ले आता है। माता के प्रसूति-गृह में इन्द्र का जाना एक लोक-विरुद्ध बात है, खास कर तत्काल ही जन्म के समय । किन्तु इन्द्राणी का स्त्री होने के नाते प्रसूति-गृह में जाना और भगवान् को बाहिर लाना आदि कार्य लोक-मर्यादा के अनुकूल ही है । श्वे. शास्त्रों में इस समय इन्द्राणी के कार्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता है । वीर का बाल-काल भ. महावीर के गर्भ में आने के पूर्व छह मास से लेकर जन्म होने तक की विशेष क्रियाओं एवं घटनाओं का वर्णन, तथा भगवान् की बाल-क्रीड़ाओं का उल्लेख प्रस्तुत काव्य में चौथे सर्ग से लेकर आठवें सर्ग तक किया गया है, अतः उनकी चर्चा करने की यहां आवश्यकता नहीं है । प्रकृत में इतना ही ज्ञातव्य है कि इन्द्र ने जन्माभिषेक के समय भगवान् का 'वीर' यह नाम रखा । भगवान् के गर्भ में आने के बाद से ही उनके पिता के यहां सर्व प्रकार की श्री समृद्धि बढ़ी, अतः उन्होंने उनका नाम 'श्री वर्धमान' रखा । भगवान् जब बालक थे और अपने साथियों के साथ एक समय आमलकी-क्रीड़ा कर रहे थे, उस समय एक संगमक देव ने आकर उनके धीर-वीर पने की परीक्षा के लिए उस वृक्ष के तने को सर्प का रूप धारण कर घेर लिया, तब सभी साथी बालक तो भय से भाग खड़े हुए, किन्तु बालक वीर कुमार निर्भय होकर उसके मस्तक पर पैर रखते हुए वृक्ष पर सी नीचे उतरे और उसे हाथ से पकड़कर दूर फैंक आये ।। तत्पश्चात् बालकों ने घुड़सवारी का खेल खेलना प्रारंभ किया । इस खेल में हारने वाला बालक घोड़ा बनता और जीतने वाला सवार बनकर उसकी पीठ पर चढ़कर उसे इधर-उधर दौड़ाता । वह देव भी सर्प का रूप छोड़कर और एक बालक का रूप रखकर उनके खेल में जा मिला । देव के खेल में हार जाने पर उसे घोड़ा बनने का अवसर आया । यतः वीर कुमार विजयी हुए थे, अतः वे ही उस पर सवार हुए । उनके सवार होते ही वह देव उन्हें ले भागा और दौड़ते हुए ही उसने विक्रिया से अपने शरीर को उत्तरोत्तर बढ़ाना शुरु कर दिया । वीर कुमार उस देव की चालाकी को समझ गये । अतः उन्होंने उसकी पीठ पर जोर से एक मुट्ठी मारी, जिससे उस छद्मवेषी का गर्व खर्व हो गया । उसने अपना रूप संकुचित किया । वीर कुमार नीचे उतरे और उस छद्मवेषी ने अपना यथार्थ रूप प्रकट कर, उनसे क्षमा-याचना कर तथा उनका नाम 'महावीर' रखकर उनकी स्तुति की और अपने स्थान को चला गया । तब से भगवान् का यह नाम सर्वत्र प्रचलित हो गया । वीर का विद्यालय-प्रवेश श्वे. शास्त्रों के अनुसार वीर कुमार को आठ वर्ष का होने पर उनके पिता ने विद्याध्ययन के लिए एक विद्यालय में भेजा । अध्यापक जो कुछ उन्हें याद करने के लिए देवे, उससे अधिक पाठ वीर कुमार तुरन्त सुना देवें । आश्चर्यचकित होकर अध्यापक ने प्रति दिन नवीन-नवीन विषय पढ़ाये और उन्होंने तत्काल ही सर्व पठित विषयों को ज्यों कात्यों ही नहीं सुनाया, बल्कि अध्यापक को भी अज्ञात-ऐसी विशेषताओं के साथ सुना दिया । यथार्थ बात यह थी १. ततो विमाना दुत्तीर्य मानादिव महामुनिः । प्रसन्नमानसः शक्रो जगाम स्वामिसन्निधौ ।।४०७॥ अहं सौधर्मदेवेन्द्रो देवि त्वत्तनु-जन्मनः । अर्हतो जन्ममहिमोत्सवं कर्तुमिहाऽऽगम् ॥४१४॥ भवत्या नैव भेतव्यमित्युदीर्य दिवस्पतिः । अवस्वापनिका देव्यां मरुदेव्यां विनिर्ममे ॥४१५।। नाभिसूनो:प्रतिच्छन्दं विदधे मधवा ततः । देव्याः श्री मरूदेवायाः पावें तं च न्यवेशयत् ।।४१६॥ (त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरितं पर्व १, सर्ग २) २. यह कथानक श्वे. ग्रन्थों में पाया जाता है । -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy