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________________ 25 इस सन्दर्भ में कुछ बातें उल्लेखनीय है- जिस प्रकार दि. परम्परा में तीर्थंकर के गर्भ में आने के भी छह मास पूर्व से नगरी की रचना, रत्न-सुवर्ण की वर्षा और छप्पन कुमारिका देवियों का आकर भगवान् भी माता की सेवा आदि का विधान पाया जाता है, वैसा श्वे. परम्परा में नहीं मिलता । उनसे शास्त्रों के अनुसार उक्त सर्व कार्य तीर्थङ्कर के जन्म लेने पर ही प्रारम्भ होते हैं उसके पूर्व नहीं । दि. परम्परा के अनुसार तीर्थङ्कर की माता को दिखाई देने वाले स्वप्नों का फल तीर्थङ्कर के पिता ही उसे बतलाते हैं, किन्तु श्वे. परम्परा में दो मत पाये जाते हैं-कल्प सूत्र के अनुसार तो स्वप्नों का फल स्वप्नशास्त्र के वेत्ता ज्योतिषी लोग कहते हैं । किन्तु हेमचन्द्राचार्य के मतानुसार इन्द्र आकर उनका फल कहते हैं । इसी प्रकार एक बात और भी ज्ञातव्य है कि दि. परम्परा के अनुसार सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़ कर तीर्थङ्करों के जन्माभिषेक के समय आता है । किन्तु श्वे. परम्परा के अनुसार वह पालक विमान पर बैठ कर आता है । इस सन्दर्भ में एक बात और भी ज्ञातव्य है कि दि. परम्परा के अनुसार सौधर्मेन्द्र की इन्दराणी ही प्रसूति स्थान में जाकर और मायामयी बालक को रखकर भगवान् को बाहिर लाती है और अपने पति इन्द्र को सौंपती है । किन्तु १. सुराः ससंभ्रमाः सद्यः पाकशासन-शासनात् । तां पुरी परमानन्दाद व्यधुः सुर-पुरीमिव ॥७०॥ विश्वदृश्वैतयोः पुत्रो जनितेति शतक्रतुः । तयोःपूजां व्यधत्तोच्चैरभिषेकपुरस्सरम् ॥८३॥ षड्भिर्मासैरथैतस्मिन् स्वर्गादवतरिष्यति । रत्नवृष्टिं दिवो देवाः पातयामासुरदरात् ॥४॥ षण्मासानिति सामप्तत् पुण्ये नाभिनृपालये । स्वर्गावतरणाद् भर्तुः प्राक्तरा द्युम्नसन्ततिः ॥१६॥ पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तदा मता । अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थकृत्त्वस्य भाविनः ॥९७॥ तदा प्रभृति सुत्रामशासनात्ताः सिषेविरे । दिक्कुमार्योऽनुचारिण्यस्तकालोचितकर्मभिः ॥१६३॥ (महापुराण, पर्व १२) २. अथाऽधोलोक वासिन्यः सद्यः प्रचलितासनाः । दिक्कुमार्यः समाजग्मुरष्टौ तत्सूतिवेश्मनि ॥२७३॥ इत्यादि। (त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित, पर्व १, सर्ग २) ३. मङ्गलैश्च प्रबुद्दयाशु स्नात्वा पुण्य-प्रसाधना । सा सिद्धार्थ-महाराजमुपागम्य कृतानतिः ॥२५८॥ सम्प्राप्तार्धासना स्वप्नान् यथाक्रममुदाहरत् । सोऽपि तेषां फलं भावि यथाक्रममबूबुधत् ॥२५९॥ (उत्तर पुराण, पर्व ७४) ४. तए णं ते सुविण-लक्खण-पाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिए एयमढे सुच्चा निसम्म हट्ट तुट्ठ जाव हियया ते सुमिणे सम्म ओगिणहंति, ओगिण्हत्ता x x x सुमिणसत्थाई उच्चारेण्णा २ सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी ॥७२॥ (कल्पसूत्र) तत्कालं भगवन्मातुः स्वप्रार्थमभिशसितुम् । सुहृदः कृतसङ्केता इवेन्द्रास्तुल्यमाययुः ॥२३२॥ ततस्ते विनयान्मूर्ध्नि घटिताञ्जलिकुड्मला) । स्वप्रार्थं स्फुटयामासुः सूत्रं वृत्तिकृतो यथा ॥२३३॥ (त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित, पर्व १, सर्ग २) ६. अथ सौधर्मकल्पेशो महैरावतदन्तिनम् । समारुह्य समं शच्या प्रतस्थे विबुधैवृतः ॥१७॥ (आदि पुराण, पर्व १३) ७. आदिशत्पालकं नाम वासवोऽप्याभियोगिकम् । असम्भाव्य-प्रतिमानं विमानं क्रियतामिति ॥२५३॥ पञ्चयोजनशत्युच्चं विस्तारे लक्षयोजनम् । इच्छानुमानगमनं विमानं पालकं व्यधात् ॥२५६॥ दिङ् मुखप्रतिकलितैद्यों दारयदिवाऽभितः । सौधर्ममध्यतोऽचालीत तद-विमानं हरीच्छया ॥३९२॥ (त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित, पर्व १, सर्ग २) प्रसवागारमिन्द्राणी ततः प्राविशदुत्सवात् । तत्रापश्यत् कुमारेण साधं तां जिनमातरम् ॥२७॥ इत्यभिष्टत्य गुढाङ्गी तां मायानिद्रयाऽयुजत् । पुरो विधाय सा तस्या मायाशिशुमथापरम् ॥३१॥ ततः कुमारमादाय वजन्ती सा बभौ भृशम् । द्यौरिवार्कमभिव्याप्सनभसं भासुरांशुभिः ॥३५॥ ततः करतले देवी देवराजस्य तं न्यधात् । बालार्कमौदये सानौ प्राचीव प्रस्फुरन्मणौ ॥३६॥ (आदि पुराण, पर्व १३) ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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