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सम्बोधित कर सन्मार्ग की ओर लगाया गया होता, तो उसके नरक जाने का अवसर ही नहीं आता । श्वेत आगमों की छान-बीन करने पर भगवती सूत्र के १२ वें शतक के ९ वें उद्देश्य के अनुसार प्रथम नरक का नारकी वहां से निकल कर चक्रवर्ती हो सकता है । उसका आधार इस प्रकार है -
(प्र.) के नरदेवा? (उ.) गोयमा, जे रायाओ चाउरंतचक्कवट्टी उपण्णसम्मत्त-रयणप्पहाणा नवनिहिपइणो समिद्धकोसा बत्तीसं रायवरसहस्साणुयातमग्गा सागर-वरमेहलाहिवइणो मणुस्सिदा से णरदेवा । (प्र.) णरदेवा णं भंते कओहिंतो उववज्जति? किं. णेरइए. पुच्छा । (उ.) गोयमा, णेरइएहिंतो वि उववजंति, णो तिरि. णो मणु. देवेहिंतो वि उवजंति । (प्र.) जइ नेरइएहिंतो उववजंति, किं रयणप्पह-पुढविणेरइएहिंतो उववजंति, जाव अहे सत्तमपुढविणेरइएहिंतो उववज्जति? (उ.) गोयमा, रयणप्पहापढविणेरइए उववजंति, णो सक्का जाव नो अहे सत्तम-पुढविणेरइएहिंतो उववजति । (भगवतीसूत्र, भा. ३, पृ. २८९)
इसका अर्थ इस प्रकार है- प्रश्न-नर-देव कौन कहलाते हैं ? उत्तर-गौतम, जो राजा चातुरन्त-चक्रवर्ती हैं, जिन्हें चक्ररत्न प्राप्त हुआ है, जो नव निधियों के स्वामी हैं, जिनका कोष (खजाना) समृद्ध है, बत्तीस हजार राजा जिनके पीछे चलते हैं और जो समुद्ररूप उत्तम मेखला के अधिपति हैं, वे मनुष्यों के इन्द्र नर-देव कहलाते हैं । प्रश्न-भगवन, ये नरदेव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-गौतम, वे नर-देव नरक से भी आकर उत्पन्न होते हैं और देवगति से भी आकर के उत्पन्न होते हैं । किन्तु तिर्यग्गति और मनुष्यगति से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं । प्रश्न- भगवन्, यदि नरक से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभा पृथिवी के नारकियों से आकर उत्पन्न होते हैं, क्या शर्करा. यावत् अधस्तन सप्तम पृथिवी के नारकियों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-गौतम, रत्नप्रभा, पृथिवी के नारकियों से आकर उत्पन्न होते हैं, शेष नीचे की छह पृथिवियों के नारकियों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं ।
भगवती सूत्र के उक्त आधार पर प्रथम नरक से निकला जीव चक्रवर्ती हो सकता है, ऐसी श्वे. मान्यता भले ही प्रमाणित हो जाय, किन्तु जब नारायण, बलदेव जैसे अर्धचक्रियों की उत्पत्ति देवगति से ही बतलाई गई है, तब पूर्ण चक्रवर्ती सम्राट की उत्पत्ति नरक से निकलने वाले जीव से कैसे सम्भव है ?
ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने अपने आगम की मान्यता के अनुसार ही उक्त भवों का निर्धारण किया है । यहां इतनी बात ध्यान देने के योग्य है कि षट्खण्डागम के पुस्तकारूढ़ होने के भी लगभग तीन सौ वर्ष बाद भगवती सूत्र आदि श्वे. आगम तीसरी वाचना के पश्चात पुस्तकारुढ हुए हैं । अतः षटखण्डागम का प्राचीन होना स्वयं सिद्ध है । इस सन्दर्भ में एक बात और भी ज्ञातव्य है कि दि. परम्परा भी षटखण्डागम की उक्त गति आगति चूलिका की उत्पत्ति व्याख्या-प्रज्ञप्ति अंग से ही मानती है, जबकि श्वे. परम्परा भगवती-सूत्र को व्याख्या-प्रज्ञप्ति नाम से कहती है । ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम-प्रस्तोता के गुरु धरसेनाचार्य के पश्चात श्रुत ज्ञान की धारा और भी क्षीण होती गई, और श्वे. परम्परा में लिपिबद्ध होने तक वह बहुत कुछ विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गई । यही कारण है कि अनेक आचार्यों के स्मरणों के आधार पर श्वे. आगमों का अन्तिम संस्करण सम्पन्न हुआ। अतः कितने ही स्थल त्रुटित रह गये हैं ।
प्रस्तुत काव्य में भ. महावीर के पूर्व भों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से ग्यारहवें सर्ग में किया गया है । जहां तक मेरा अनुमान है कि यह पूर्व भवों का वर्णन गुणभद्राचार्य-रचित उत्तरपुराण के आधार पर किया गया है । इसके परवर्ती सभी दि. ग्रन्थों में उसी का अनुसरण दृष्टिगोचर होता है । . सिद्धान्त ग्रन्थों में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल छयासठ सागरोपम बतालाया गया है। सिंह के जिस भव में चारण मुनियों ने उसे संबोधन करके सम्यक्त्व को ग्रहण कराया, वह बराबर अन्तिम महावीर के भव तक बना रहा । अर्थात् लगातार १० भव तक रहा और इस प्रकार क्षायोपशामिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति पूरी करके वह क्षायिक सम्यक्त्व रूप से परिणत हो उसी भव से उन्हें मुक्ति-प्राप्ति का कारण बना ।
पूर्व भवों के इस वर्णन से यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि आध्यात्मिक विकास को पराकाष्ठा पर पहुँचना किसी एक ही भव की साधना का परिणाम नहीं है किन्तु उसके लिए लगातार अनेक भवों में साधना करनी पड़ती है ।
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