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________________ Mxxxxxx चारण मुनि द्वारा संबोधन) २४. प्रथम स्वर्ग का देव २५. कनकोज्जवल राजा २६. लान्तव स्वर्ग का देव २७. हरिषेण राजा २८. महाशुक्र स्वर्ग का देव २९. प्रियमित्र चक्रवर्ती २३. पोट्टिल या प्रियमित्र चक्रवर्ती ३०. सहस्रार स्वर्ग का देव २४. महाशुक्र स्वर्ग का देव ३१. नन्द राजा (तीर्थङ्कर प्रकृति २५. नन्दन राजा (तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध) का बन्ध) ३२. अच्युत स्वर्ग का इन्द्र २६. प्राणत स्वर्ग का देव ३३. भ. महावीर २७. भ. महावीर दोनों परम्पराओं के अनुसार भ. महावीर के पूर्व भवों में छह भवों का अन्तर कैसे पड़ा ? इस प्रश्न के समाधानार्थ दोनों परम्पराओं के आगमों की छान-बीन करने पर जो निष्कर्ष निकला, वह इस प्रकार है भ. महावीर दोनों परम्पराओं के अनुसार बाईसवें भव में प्रथम नरक के नारकी थे । श्वे. परम्परा के अनुसार वे वहां से निकल कर पोट्टिल या प्रियमित्र चक्रवर्ती हुए । दि. परम्परा के अनुसार नरक से निकल कर चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव नहीं हो सकते हैं । छक्खंडागमसुत्त की गति-आगति चूलिका में स्पष्ट रूप से कहा है - तिसुउवरिमासुपुढवीसुणैरइया णिरयादो उवट्टिद-समाणा कदिगदीओ आगच्छति ? (सू. २१७) दुवेगदीओआगच्छंतितिरिक्खगर्दि मणुसगदिं चेव (सूं. २१८) । मणुसेसु उववरणल्लया मणुस्सा केइमेक्कारस उप्पाएंति - केइमाभिणिबोहियणाणमुप्पाएंति, केई सुदणाणमुप्पाएंति, केईमोहिणाणमुप्पाएंति, केई मणपज्जवणाण मुप्पाएंति केई केवलणाणमुप्पाएंति, केई सम्मामिच्छत्तमुप्पाएंति, केई सम्मत्तमुप्पाएंति केई संजमासंजममुप्पाएंति, केई संजममुप्पाएंति । णो बलदेवत्तं णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति, णो चक्कवट्टित्तमुप्पाएंति। केई तित्थयरत्तमुप्पाएंति, केइमंतयडा होदूण सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वाणयति सव्वदुक्खार्ण मंतं परिविजाणति । (स. २२०) इसका अर्थ इस प्रकार है - प्रश्न - ऊपर की तीन पृथिवियों के नारकी वहां से निकल कर कितनी गतियों में आते हैं ? उत्तर - दो गतियों में आते हैं- तिर्यग्गति में और मनुष्य गति में । मनुष्य गति में मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ग्यारह पदों को उत्पन्न करते हैं- कोई आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई श्रुतज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं, कोई संयम उत्पन्न करते हैं । किन्तु वे जीव न बलदेवत्व को उत्पन्न करते हैं, न वासुदेवत्व को और न चक्रवर्तित्व को उत्पन्न करते हैं । कोई तीर्थङ्कर उत्पन्न होते हैं, कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं और सर्व दुःखों के अन्त होने का अनुभव करते हैं । (षट्खडागम पु. ६ पृ. ४९२) इस आगम-प्रमाण के अनुसार नरक ने निकला हुआ जीव चक्रवर्ती नहीं हो सकता है और न वासुदेव, बलदेव ही । किन्तु ये तीनों पदवी-धारी जीव स्वर्ग से ही आकर उत्पन्न होते हैं । अतएव दि. परम्परा के अनुसार बाईसवें भव के बाद भ. महावीर का जीव सिंह पर्याय में उत्पन्न होता है और उस भव में चारण मुनियों के द्वारा प्रबोध को प्राप्त होकर उत्तरोत्तर आत्मविकास करते हुए उनतीसवें भव में चक्रवती होता है, यह कथन सर्वथा युक्ति-संगत है । किन्तु श्वे. परम्पस में प्रथम नरक से निकल कर एक दम चक्रवर्ती होने का वर्णन एक आश्चर्यकारी ही है । खास कर उस दशा में-जब कि उससे भी पूर्व भव में वह सिंह था, और उससे भी पूर्व बीसवें भव में वह सप्तम नरक का नारकी था । तब कहां से उस जीव ने चक्रवर्ती होने योग्य पुण्य का उपार्जन कर लिया ? श्वेताम्बर परम्परा में सिंह को किसी साधु-द्वारा सम्बोधे जाने का भी उल्लेख नहीं मिलता है । यदि वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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