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तदनन्तर किसी समय युवराज विश्वनन्दी नन्दन-वन के समान मनोहर अपने उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। उसे देख कर ईर्ष्या से सन्तप्त चित्त हुए विशाखनन्दी ने अपने पिता के पास जाकर कहा कि उक्त उद्यान मुझे दिया जाय, अन्यथा मैं घर छोड़कर चला जाऊंगा । पुत्र-मोह से प्रेरित होकर राजा ने उसे देने का आश्वासन दिया और एक षडयन्त्र रचकर विश्वनन्दी को एक शत्रु-राजा को जीतने के लिए बाहिर भेज दिया और वह उद्यान अपने पुत्र को दे दिया । विश्वनन्दी जब शत्रु को जीत कर वापिस आया और उक्त षडयन्त्र का उसे पता चला, तो वह आग-बबूला हो गया और विशाखनन्दी को मारने के लिये उद्यत हुआ । भय के मारे अपने प्राण बचाने के लिए विशाखनन्दी एक कैंथ के पेड़ पर चढ़ गया । विश्वनन्दी ने हिला-हिलाकर उस कैंथ के पेड़ को जड़ से उखाड़ डाला
और विशाखनन्दी को मारने के लिए ज्यों ही उद्यत हुआ कि विशाखनन्दी वहां से भागा और एक पाषाण-स्तम्भ के पीछे छिप गया । विश्वनन्दी ने उसे भी उखाड़ फेंका और विशाखनन्दी अपने प्राण बचाने के लिए वहां से भी भागा। उसे भागते हुए देखकर विश्वनन्दी को करुणा के साथ विरक्ति-भाव जागृत हुआ और राज-भवन में न जाकर वन में जा सम्भूत गुरु के पास जिन-दीक्षा धारण कर ली ।
दीक्षा-ग्रहण करने के पश्चात् वे उग्र तप करते हुए विचरने लगे और विहार करते हुए किसी समय वे गोचरी के लिए नगर में ज्यों ही प्रविष्ट हुए कि एक सद्यः प्रसूता गाय ने धक्का देकर विश्वनन्दी मुनि को गिरा दिया । उन्हें गिरता हुआ देख कर अचानक सामने आये हुए विशाखनन्दी ने व्यंग-पूर्वक कहा- 'तुम्हारा वह पेड़ और खम्भे को उखाड़ फेंकने वाला पराक्रम अब कहां गया ?' उसका यह व्यंग बाण मुनि के हृदय में प्रविष्ट हो गया और निदान किया कि यदि मेरी तपस्या का कुछ फल हो- तो मैं इसे अगले भव में मारु । तपस्या के प्रभाव से मुनि का जीव अठारहवें भव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ । आयु के पूर्ण होने पर वह वहां से आकर इसी भरत क्षेत्र में उन्नीसवें भव में त्रिपृष्ठ नाम का प्रथम नारायण हुआ और विशाखनन्दी का जीव अनेक कुयोनियों में परिभ्रमण कर अश्वग्रीव नाम का प्रथम प्रतिनारायण हुआ । पूर्व भव के वैर भाव के संस्कार से एक स्त्री का निमित्त पाकर दोनों में घमासान युद्ध हुआ और त्रिपृष्ट ने अश्वग्रीव को मारकर एक छत्र त्रिखण्ड राज्य-सुख भोगा। आयु के अन्त में मरकर बीसवें भव में त्रिपृष्ठ का जीव सातवें नरक का नारकी हुआ ।
वहां से निकल कर वह इक्कीसवें भव में सिंह हुआ और हिंसा-जनित पाप के फल से पुनः बाईसवें भव में प्रथम नरक का नारकी उत्पन्न हुआ । वहां से निकल कर तेईसवें भव में फिर भी सिंह हुआ ।
इस सिंह के भव में वह किसी दिन भूख से पीड़ित होकर एक हरिण को पकड़कर जब खा रहा था, तभी भाग्यवश दो चारण मुनि आकाश मार्ग से विहार करते हुए वहां उतरे और उसे सम्बोधन किया-हे भव्य, तूने जो त्रिपृष्ठनारायण के भव में राज्यासक्ति से घोर पाप उपार्जन किया, उसके फल से नरकों में घोर यातनाएं सही हैं और अब भी तू इस मृग जैसे दीन प्राणियों को मार-मार कर घोर पाप उपार्जन कर रहा है ? मुनिराज के वचन सुनकर सिंह को जातिस्मरण हो गया और वह अपने पूर्व भवों को याद करके हरिण को छोड़कर आंखों से आंसू बहाते हुए निश्चल खड़ा हो गया । उन चारण मुनियों ने उसे निकट भव्य और अन्तिम तीर्थंकर होने वाला देख कर धर्म का उपदेश दिया । उनके वचनों को सिंह ने शान्ति पूर्वक सुना और प्रबुद्ध होकर उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में अपना शिर रखकर बैठ गया । मुनिराज ने उसे पशु मारने और मांस खाने का त्याग कराया और उसके योग्य श्रावक व्रतों का उपदेश दिया । उन मुनिराजों के चले जाने पर सिंह की प्रवृत्ति एक दम बदल गई । उसने जीवों का मारना और मांस का खाना छोड़ दिया और अन्य आहार का मिलना सम्भव नहीं था, अतः वह निराहार रह कर विचरने लगा । अन्त में सन्यास-पूर्वक प्राण छोड़ कर प्रथम स्वर्ग का देव हुआ । यह भ. महावीर का गणनीय चौबीसवां भव है । तेईसवें सिंह भव तक उनका उत्तरोत्तर पतन होता गया और मुनि-समागम के पश्चात् उनके उत्थान का श्री गणेश हुआ ।
सौधर्म स्वर्ग से चयकर वह देव इस भूतल पर अवतीर्ण हुआ और पच्चीसवें भव में कनकोज्वल नाम का राजा हुआ । किसी समय वह सुमेरु पर्वत की वन्दना को गया । वहां पर उसने एक मुनिराज से धर्म का उपदेश सुना और संसार से विरक्त होकर मुनि बन गया । अन्त में समाधि-पूर्वक प्राण-त्याग करके छव्वीसवें भव में लान्तव स्वर्ग का देव हुआ । वहां से चयकर सत्ताईसवें भव में इसी भरत क्षेत्र के साकेत नगर में हरिषेण नाम का राजा हुआ । राज्य
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