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________________ 13 मास के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर मौन धारण कर लिया। उनके दीक्षित हुए ये सभी लोग उनका अनुकरण करते हुए कुछ दिन तक तो भूख-प्यास की बाधा सहन करते रहे, किन्तु जब उनसे भूख-प्यास का कष्ट नहीं सहा गया, तो वे लोग वन के फल-फूल खाने लगे । वन-देवताओं ने उन लोगों से कहा कि दिगम्बर वेष धारण करने वाले मुनियों का यह मार्ग नहीं है। यदि तुम लोग मुनि धर्म के कठिन मार्ग पर नहीं चल सकते, तो वापिस घर चले जाओ, या अन्य वेष धारण कर लो, पर दिगम्बर वेष में रह कर ऐसी उन्मार्ग प्रवृत्ति करना ठीक नहीं है । वे लोग भरत चक्री के भय से अपने घर तो नहीं गये, किन्तु नाना वेषों को धारण करके वन में रहते हुए ही अपना जीवन यापन करने लगे । . - जब भ. ऋषभदेव को केवल ज्ञान प्रगट हो गया, तब उन्होंने उन भ्रष्ट हुए तपस्वियों को सम्बोधन कर मुनिमार्ग पर चलने का उपेदश दिया । जिससे अनेक तपस्वियों ने पुनः दीक्षा ग्रहण कर ली । किन्तु तब तक मरीचि अपने अनेक शिष्य बना कर उनका मुखिया बन चुका था, अतः उसने जिन दीक्षा को अंगीकार नहीं किया और जब उसे भरत के प्रश्न करने पर ऋषभदेव की दिव्यध्वनि से यह ज्ञात हुआ कि मैं ही आगे चलकर इस युग का अन्तिम तीर्थङ्कर होने वाला हूँ, तब तो वह और भी उन्मत्त होकर विचरने लगा और स्व-मन गढ़न्त तत्त्वों का उपदेश देकर एक नये ही मत का प्रचार करने लगा, जो कि आगे जाकर कपिल-शिष्य के नाम पर कापिल या सांख्य मत के नाम से संसार में आज तक प्रसिद्ध है। मरीचि का यह भव भ. महावीर के ज्ञात पूर्व भवों की दृष्टि से तीसरा भव है । - - यद्यपि मरीचि जीवन भर उन्मार्ग का प्रवर्तन करता रहा, तथापि कुतप के प्रभाव से मर कर वह पांचवें ब्रह्म स्वर्ग में जाकर देव उत्पन्न हुआ। यह भ. महावीर का चौथा भव है। वहां से चय कर पांचवें भव में वह इसी मध्य लोक में जटिल नाम का ब्राह्मण हुआ । पूर्व भव के दृढ़ संस्कारों से इस भव में भी वह अपने पूर्व-प्रचारित कपिल मत का ही साधु बनकर तपस्या करते हुए उसका प्रचार करता रहा और छठे भव में पुनः सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होकर देवपद पाया। वहां से चयंकर सातवें भव में पुष्यमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ और परिव्राजक बनकर उसी मिच्या मत का प्रचार करता रहा। जीवन के अन्त में मर कर आठवें भव में पुनः सौधर्म स्वर्ग का देव हुआ। नवें भव में वहां से चय कर पुनः इसी भूतल पर अवतीर्ण हुआ और ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर अग्निसह नाम का धारक उग्र तपस्वी हुआ । इस भाव में भी उसने उसी कपिल मत का प्रचार किया और मर कर दशवें भव में सनत्कुमार स्वर्ग का देव हुआ। ग्यारहवें भाव में वह पुन: इसी भूतल पर जन्म लेकर अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ और परिव्राजक बनकर उसी कपिल मत का प्रचार किया और मर कर दशवें भव में सनत्कुमार स्वर्ग का देव हुआ । ग्यारहवें भव में वह पुनः इसी भूतल पर जन्म लेकर अग्रिमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ और परिव्राजक बनकर उसी कपिल मत का प्रचार कर जीवन के अन्त में मरा और बारहवें भाव में माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ। वहां से चय कर तेरहवें भव में भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ और उसी कपिल मत का प्रचार करता हुआ मर कर चौदहवें भव में पुनः माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ । - इस प्रकार मरीचि काजीव लगातार आगे के पांचों मनुष्य भवों में अपने पूर्व दृढ़ संस्कारों से प्रेरित होकर उत्तरोतर मिथ्यात्व का प्रचार करते हुए दुर्मोच दर्शनमोहनीय के साथ सभी पाप कर्मों का उत्कृष्ट बन्ध करता रहा, जिसके फलस्वरूप चौदहवें भव वाले स्वर्ग से चयकर मनुष्य हो तिर्यग्योनि के असंख्यात भवों में लगभग कुछ कम एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम काल तक परिभ्रमण करता रहा। अतः इन भवों की गणना प्रमुख भवों में नहीं की गई है। तत्पश्चात् कर्म भार के हलके होने पर मरीचि का जीव गणनीय पन्द्रहवें भाव में स्थावर नाम का ब्राह्मण हुआ। इस भव में भी तप्सवी बनकर और मिथ्या मत का प्रचार करते हुए मरण कर सोलहवें भव में माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ। वहां से चय कर सतरहवें भव में इसी भरत क्षेत्र के मगध देशान्तर्गत रागगृह नगर में विश्वभूति राजा की जैनी नामक स्त्री से विपुल पराक्रम का धारक विश्वनन्दी नाम का पुत्र हुआ । इसी राजा विश्वभूति का विशाखभूति नामक एक छोटा भाई था, उसकी लक्ष्मणा स्त्री से विशाखनन्दी नाम का एक मूर्ख पुत्र उत्पन्न हुआ। किसी निमित्त से विरक्त होकर राजा विश्वभूति ने अपना राज्य छोटे भाई को और युवराज पद अपने पुत्र विश्वनन्दी को देकर जिन दीक्षा धारण कर ली । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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